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________________ 244 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 संख्या पांच मान कर ही की गई है (जिसका विवेचन प्रस्तुत प्रसंग में अनावश्यक है)। चित्त के साथ उत्पन्न धर्मो को चैत कहा जाना है। इन चैतों के तीन भेद किये गये हैंवेदना-स्कंघ, संज्ञा-स्कंध एवं संस्कार-स्कंध । संस्कार-स्कंध के अन्तर्गत सभी प्रकार के चैतोंउदाहरणार्थ स्मृति, मनस्कार, लोम, द्वेष, मोह, अलोम, अद्वेष, अमोह, क्रोध, ईर्ष्या, आदि आदि-का समावेश किया गया है। किन्तु जैसा कि ऊपर कहा गया है, वेदना-स्कंध एवं संज्ञा-स्कंध-यद्यपि ये चैत ही हैं तथा इनका भी समावेश संस्कारों में किया जा सकता थाअलग से इसलिए गिनाये गये कि ये दो ही सभी विवादमूलों के तथा संसार के हेतुभूत हैं। विवादों के मूल में प्रधानतया दो प्रकार की आसक्तियां विद्यमान रहती हैं-काम भोगों के प्रति आसक्ति तथा अपनी-अपनी दृष्टियाँ अर्थात् सिद्धान्तों के प्रति आसक्ति । पहली आसक्ति का प्रधान हेतु है वेदना जो गृही जीवन में बहुधा देखी जाती है, और दूसरी आसक्ति का प्रधान हेतु है संज्ञा जो प्रायः संन्यासियों में पाई जाती है। यदि इन दो आसक्तियों को समन्वित रूप में दे देखा जाय तो यों भी कहा जा सकता है कि सुख दुःखादि वेदनाओं से प्रभावित होकर व्यक्ति मिथ्या दृष्टियों में फंस जाता है और एक अविच्छिन्न दुःखप्रवाह में भटकता रहता है। आधुनिक युग की समस्यायें बाहरी रूप में भिन्न दिखाई देने पर भी तत्त्वतः वे ही हैं । आर्थिक प्रतिस्पर्धा तथा सैद्धान्तिक मतभेदों के कारण ही सभी समस्यायें उठ खड़ी होती हैं, और साथ-साथ दलीय, साम्प्रदायिक तथा अन्य विवाद भी उपस्थित होते हैं, जो राष्ट्रीय एकता के लिये घातक सिद्ध होते हैं । सभी भारतीय दर्शन संसार को दुःखमय मानते हैं तथा सभी विवादों के मूल में लोम, द्वष एवं मोह का प्रभाव बताते हैं। इन वृत्तियों से छुटकारा बिना पाये किसी प्रश्न का संतोषप्रद समाधान होना इन दर्शनों में असम्भव माना गया है । ३. राष्ट्रीय एकता के प्रश्न पर महाभारत में अधिक व्यावहारिक ढंग से विचार किया गया है। गणराज्यों के नाश की चर्चा करते हुए भीष्म युधिष्ठिर को कहते हैं ( शांतिपर्व, १०७, १४ ) : भेदे गणा बिनेशुर्हि भिन्नास्तु सुजयाः परः । तस्मात्संघातयोगेन प्रयतेरन् गणाः सदा ॥ अर्थात् आपस में फूट होने से ही संघ या गणराज्य नष्ट हुए हैं। फूट होने पर शत्रु उन्हें अनायास ही जीत लेते हैं । अतः गणों को चाहिये कि वे सदा संघबद्ध होकर ही विजय के लिए प्रयत्न करें । भीष्म संघीय एकता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं ( १०७, १५) : ____ अर्थाश्चैवाधिगम्यन्ते संघातबलपौरुषेधः । बाह्याश्च मैत्री कुर्वन्ति तेषु संघातवृत्तिषु ॥ । अर्थात् जो सामूहिक बल और पुरुषार्थ से सम्पन्न हैं, उन्हें अनायास ही सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है । संघबद्ध होकर जीवन निर्वाह करने वाले लोगों के साथ संघ से बाहर के लोग भी मैत्री स्थापित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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