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राष्ट्रीय एकता
नथमल टाटिया १. राष्ट्रीय एकता का अर्थ है राष्ट्रवासियों की वह एकता जो राष्ट्र के योगक्षेम के लिए आवश्यक है । एकता का अर्थ है अविवाद या अभेद । पारस्परिक विवाद या भेद (जिसमें वैषम्य भी समाविष्ट है) ही राष्ट्र की अशांति एवं अधोगति का कारण होता है। ये विवाद आर्थिक, वैयक्तिक, वर्णगत, दलीय, जातिगत, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, नीतिगत तथा अन्य विविध प्रकार के हो सकते हैं। पर इन सभी विवादों के मूल में दो तत्त्व मुख्यतया क्रियाशील रहते हैं-(१) अर्थ एवं काम की वासना, तथा (२) दृष्टिभेद, अर्थात् प्रादर्शगत भेद । अर्थ-वासना के अन्तर्गत वित्तं षणा, प्रभुत्वैषणा आदि की गणना की जा सकती है तथा प्रादर्शगत भेद में आधुनिक समाजवाद, साम्यवाद, लोकतन्त्रवाद आदि राजनीतियों का तथा वर्णगत, क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक तथा अन्य सभी प्रकार के भेदों का समावेश किया जा सकता है।
२. इस प्रसंग में बौद्ध दार्शनिक आचार्य वसुबन्धु की एक अभियुक्ति विशेष माननीय है । इस चराचर जगत् के घटक तत्त्वों के रूप में बौद्ध दर्शन में ये पांच स्कन्ध (धर्मों के पुंज) माने गये हैं-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान । उस पर यह प्रश्न उठता है कि जब जड़ जगत् की व्याख्या एक रूप-स्कंध से ही हो जाती है तथा चेतन जगत् की व्याख्या के लिए विज्ञान-स्कंध ( जो सामान्य मानसिक वृत्तियों का बोधक है ), संस्कार-स्कंध ( जिसमें अन्य सभी विशिष्ट मनोवृत्तियों का समावेश हो जाता है) ही पर्याप्त हैं तो फिर स्वतंत्ररूप से वेदनास्कंध [ सुख-दुःख आदि वेदना में ) एवं संज्ञा-स्कंध ( दार्शनिक कल्पनायें ) को मानने की आवश्यकता ही क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचार्य वसुबन्धु ने निम्नांकित श्लोक (अभिधर्मकोश १.२१ ) में दिया है---
विवादमूलसंसारहेतुत्वारक्रमकारणात् ।
चैत्तेभ्यो वेदनासंज्ञे पृथक् स्कन्धो निवेशितो।। स्वरचित भाष्य में इसकी व्याख्या उन्होंने इस प्रकार की है--
विवादमले-कामाध्यवसानं दृष्टयध्यवसानं च । तयोर्वेदनासंशे यथाक्रमं प्रधानहेतू । संसारस्यापि ते प्रधानहेतू । वेदनास्वादगृद्धो हि विपर्यस्तसंज्ञः संसरति ।
इस भाष्य की व्याख्या करते हुए प्राचार्य यशोमित्र ने कहा है
वेदनास्वादशाद्धि कामानभिष्वजन्ते गृहिणः । विपरीत संज्ञावशाच्च दृष्टीरभिष्वजन्ते प्रायेण प्रजिताः ।
- भावार्थ यह है कि वेदना और संज्ञा''ये दो स्कन्ध सारे विवादमूलों के और सांसारिक जीवन के हेतुभूत हैं। स्कघों की क्रमव्ववस्था जो शास्त्र में की गई है वह भी स्कन्धों को १. ११ अप्रील, १९६८, को विद्वद्गोष्टी में पढ़ा गया ।
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