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________________ 242 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 पापधर्मा आदि अर्थो में भी इस पद के प्रयोग पालि ग्रन्थों में देखे जाते हैं। आर्य शब्द की व्याख्या में जिस व्यापक दृष्टि का आश्रय जैन विचारकों ने लिया वैसा बौद्ध विचारकों ने नहीं। वस्तुतः भगवान बुद्ध प्राचार में समन्वय के पक्षपाती थे, किन्तु, विचार के क्षेत्र में वे किसी प्रकार के समझौते में विश्वास नहीं रखते थे । इसके विपरीत, भगवान् महावीर आचार में तनिक भी शिथिलता को स्वीकार नहीं करते हुए विचार के क्षेत्र में मध्यमार्ग अर्थात् अनेकान्त को प्रश्रय देते थे। इसी कारण आर्य पद के विभिन्न पहलुओं पर महावीर के अनुयायियों ने विचार किया तथा उसकी व्याख्या में विकासशील सामाजिक तथा दार्शनिक तत्त्वों के समावेश में वे सावधान रहे। किन्तु, ठोक इसके विपरीत, दूसरी तरफ, बौद्ध चिन्तकों ने आर्य शब्द के व्यावहारिक पहलुओं की सर्वथा उपेक्षा कर, मात्र उसके पारमार्थिक तत्त्व की ओर ही ध्यान रक्खा। [४] आर्य शब्द के उपयुक्त विवेचनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मणपरम्परा में यह शब्द अपनी प्राचीन विशेष्य-वाचकता को सुरक्षित रखता हुआ विशेषण-वाचकता की ओर अग्रसर हुआ, पर भूल से सर्वधा पृथक् नहीं होकर अपनी व्यावहारिकता को मौलिकता के साथ बनाये रखा। जैन मनीषियों ने तो सामाजिक विकास को ध्यान में रख कर व्यावहारिक एवं पारमार्थिक दोनों ही दृष्टियों का समन्वय करते हुए इस शब्द की एक विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की। किन्तु, बौद्ध चिन्तकों ने केवल पारमार्थिक निष्कर्ष के आधार पर ही इसका उपयोग किया। इस कारण बौद्ध परम्परा में यह शब्द एक अर्थ-विशेष का वाचक बन कर ही रह गया। इस प्रकार आर्य शब्द का अर्थगत विकास भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत हिन्दू, जैन तथा बौद्ध इन तीनों दृष्टिकोणों का युगपत् प्रतिनिधित्व करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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