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ARYA BANĀMA ANARYA
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गया है । म्लेच्छ जातियों की एक लम्बी सूची दी गई है, जिसमें सग, जवण, चिलाय, सबर आदि गिनाये गये हैं। आर्यों पर कई दृष्टियों से विचार वहाँ किया गया है। ऋद्धि-प्राप्त आर्यों में अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण एवं विद्याधरों का समावेश किया गया है । शेष आर्यों का वर्णन निम्नोक्त नौ [ 8 ] शीर्षकों में पाया जाता है- १. क्षेत्र-आर्य, २. जाति-आर्य, ३. कुल-आर्य, ४. कर्म-प्रार्य, ५. शिल्प-आर्य, ६. भाषा-आर्य, ७. ज्ञान-आर्य, ८. दर्शन-आर्य और ९. चारित्र-प्रायं। क्षेत्र-आर्य के प्रसंग में निम्नोक्त देशों का उल्लेख है-मगध, अंग, वंग, कलिंग, काशी, कोशल, कुरु, कुसट्ट, पंचाल, जंगल, सौराष्ट्र, विदेह, वत्स, संडिल्ल, मलय ( मलद ), मत्स्य, अच्छ, दसपण, चेदी, सिंधुसोवीर, शूरसेन, भंगी, वट्ट, कुणाल, लाढ एवं केकया । मनुस्मृति में निर्दिष्ट आर्यावर्त की तुलना, देशों की इस सूची से की जा सकती है । जाति -आर्यों के अन्तर्गत इन छः जातियों का उल्लेख है--अंबट्ठ, कलिंद, विदेह, वेदग, हरिय और चुंचुण । अंबष्ट एवं वैदेह की व्याख्या मनुस्मृति (१०१८ तथा १०॥११) में उपलब्ध है। कुल-आर्यों में-उग्ग, भोग, राइन्न ( संस्कृत-राजन्य ), इक्खाग ( इक्ष्वाकु ), णाया, ( ज्ञातृ ) एवं कौरव्व-ये छ: कुल गिनाये गये हैं। कर्म-आर्य नाना प्रकार के होते हैं, जिनमें--दोसिय (दौष्यिक, वस्त्र का व्यापारी ), सोत्तिय ( सौत्रिक, सूते का व्यापारी ), कोलालिय ( कौलालिक, मिट्टी का पात्र बनाने वाला ) आदि पेशेवरों का समावेश किया गया है । शिल्प-पार्यों में तुण्णाग ( रफू करने वाला ), तंतुवाय ( जुलहा ), छत्तार ( छाता बनाने वाला), पोत्यार ( पोथी लिखने वाला), चित्तार ( चित्र बनाने वाला), आदि शिल्पियों का उल्लेख किया गया है । भाषा-आर्यों के अन्तर्गत अर्धमागधी भाषा तथा ब्राह्मीलिपि का उपयोग करने वाले गिनाये गये हैं । ज्ञान-प्राय, दर्शन-प्रार्य एवं चारित्र-आयं की व्याख्या जैनदर्शन के माक्षमार्ग की अपेक्षा से की गयो है । वस्तुतः मोक्ष-मार्ग हो आयत्व का निष्कर्ष है। क्षेत्र, जाति, कुल आदि उपाधिमात्र हैं। परम्परा से मान्य आय-म्लेच्छ विभाग को जैनों ने औपचारिक मान्यता तो अवश्य दो, किन्तु, उसके आधारभूत जातिवाद के सिद्धान्त को अस्वीकृत कर दिया तथा व्यापक दृष्टि से संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों को ध्यान में रखकर आर्यत्व का पुनर्मूल्यांकन प्रस्तुत किया। व्याकरण-महाभाष्य में उद्धृत "न म्लेच्छितवै नापभाषितवै" द्वारा अस्फुट उच्चारण करने वालों पर जो प्रतिबन्ध लगाया गया था, उसका निराकरण भाषा-प्रार्य की व्याख्या में जैनों द्वारा कर दिया गया । यहाँ जैनदर्शन की समन्वयात्मक दृष्टि अत्यन्त स्पष्ट रूप में निखर आयी है ।
[३] भगनान् बुद्ध ने तो आर्य शब्द को किसी प्रजा या जाति-विशेष के अर्थ में लिया ही नहीं । उन्होंने बोध प्राप्त कर जिन सत्यों का प्रचार किया उन्हें आर्य-सत्य ( पालीअरिय सच्च ) यानि 'सत्यद्रष्टाओं द्वारा अनुभूत सत्य' की संज्ञा दी। अर्थात् उनको दृष्टि में सत्य का साक्षात्कार कर लेने पर ही मनुष्य आर्य बनता है। यह दृष्टि जनदर्शन के मोक्षमार्गगामी आर्य की दृष्टि के समान ही कही जा सकती है। बौद्ध ग्रन्थों में इस पारिभाषिक आय पद की व्याख्या विस्तार से मिलती है । आर्य शब्द का विपरीतार्थ बोधक शब्द पृथग्जन है, जो अज्ञान रूपी अन्धकार में निमग्न रहने की अवस्था का बोधक है । अनार्य शब्द का प्रयोग बौद्ध ग्रन्थों में हीन या असभ्य अर्थ में आता है। प्रसत्पुरूष, दुःशील,
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