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________________ 206 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 1 काम है । कुछ लोग पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन गरीब के ऊपर अत्याचार भी करते हैं । मेरी समझ में यह धर्म नहीं हुआ । धर्मं तो मनुष्य के प्रति, एक दूसरे के प्रति हमारे व्यवहार में निहित है और इस धर्म की बुनियाद 'युक्ति' है । जिस धर्म से हमारे रोज दिन के जीवन का कोई मतलब नहीं है, उस धर्म की बुनियाद युक्ति के अलावा कुछ और हो सकती है, जिसके बारे में न मेरी जानकारी है और न जिस पर कुछ कहने का मैं प्रधिकारी हूँ | मेरी निश्चित राय है कि जिस धर्म से हम जीवन-यापन करते हैं, जो धर्म हम सबको एक सूत्र में गूंथ करके रखता है और जो पूरे समाज का धाररण-पोषण करता है, उस धर्म की बुनियाद युक्ति पर ही कायम है। आखिर धर्म है क्या ? जो धारण करता है, वही तो धर्म है । सचमुच, जो इस दुनिया का धारण-पोषण करता है, जो इसको ठीक रास्ते पर अच्छी तरह से चलाता है, वही धर्म है । जिन महापुरुषों ने धर्म के बारे में कोई महत्त्वपूर्ण बात कही या धर्म सम्बन्धी धारणाओं में कुछ परिवर्तन किया, उसका प्राधार 'युक्ति' ही है । क्या उचित है और क्या अनुचित है— इसके बारे में चिन्तन करके उन्होंने तय किया कि यह नियम होना चाहिए और यह नहीं होना चाहिए । फिर जो नियम हो, उसे वज्र की लकीर नहीं बनाना चाहिए । उसमें भी जरूरत के मुताबिक समय-समय पर युक्ति के द्वारा परिवर्तन की गुंजाइश रहनी चाहिए । भगवान् बुद्ध द्वारा चलाये नियमों की यही खूबी है कहीं कठोर नियंत्रण किया, तो कहीं कुछ घटा भी दिया। स्नान के बारे में 'स्नाने धर्मेच्छा' | हमारे देश में अनेक ऐसे आदमी थे और अभी भी हैं, जो बिना नहाये चाय-पान भी नहीं करते; तीन-दफे — सुबह, दोपहर, शाम नहाते हैं। इतना ही नहीं, बहुत लोग खाना भी भींगे कपड़े में ही खाते हैं । लेकिन भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं से कहापन्द्रह दिनों में एक दफे नहाओ ।" ऐसा क्यों कर दिया उन्होंने ? इसलिए कि स्नान करने में ही आदमी लगा रहेगा, तो दूसरे आवश्यक काम कब करेगा । हमारे सनातनी हिन्दू धर्म में लोग समझते थे और अभी भी कुछ लोग समझते हैं कि हम जितना ही नहायेंगे उतना ही पुण्य होगा | हमें ऐसी धार्मिक धारणात्रों में सामाजिक अवस्था और सामाजिक समस्याओं को देखते हुए परिवर्तन करना है । यह परिवर्तन कैसे किया जायगा ? अनुभूति से या युक्ति से ? मेरे विचार में इसे युक्ति से होना चाहिए। ऐसा मैं इसलिए कहता हूँ कि जो धर्म मनुष्य के सामाजिक जीवन से कोई ताल्लुक नहीं रखता है, उसकी बुनियाद अनुभूति हो सकती है, लेकिन जो धर्म मनुष्य-जीवन के निकट सम्पर्क में है, जो धर्म मनुष्य जीवन को संयमित करके एकता, हिसा, मैत्री और साम्य के रास्ते पर ले जाना चाहता है, उस धर्म की बुनियाद 'युक्ति' पर ही कायम रहेगी और 'युक्ति' ही उस धर्म के प्रारम्भ और परिवर्तन का आधार बनी रहेगी । । भगवान् बुद्ध ने कहा गया है --- वैशाली में आज जो चर्चा हुई, बह बहुत अच्छी हुई । मैं समझता हूँ, इससे भी बेशी चर्चा होनी चाहिए थी । धर्म-समन्वय की बात भर कह देने से समन्वय नहीं होता १ कथं हि नाम ते, मिक्लवे, मोधपुरिसा राजानं पि पस्सित्वा न मत्तं जानित्या नास्सिन्ति । तं भिक्सावे, अप्पसन्नानं वा पसादाय पे० एवं च पन, भिक्खवे इमं सिक्खापदं उद्दिसेय्याथ - यो पन भिक्खु ओरेनद्धमासं नहायेय्य, पाचित्तियं । —पाचित्तिय, ५.५७.३५७ ( पृष्ठ १६० ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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