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________________ DHARMA KE MŪLA: ANUBHUTI EVAM TARKA एकाधिक परतवाली' या मोटे चमड़े की पादुका भी पहनी जा सकती है । इस तरह भगवान बुद्ध ने तर्क से युक्ति से सोच-विचार कर आचरण और व्यापार के सभी नियमों को W बनाया | 205 S वैशाली में जो गणतंत्र था, उसके निर्णय की भी तो यही प्रक्रिया अजातशत्रु वैशाली पर आक्रमण करना चाहता था, उस समय भगवान् बुद्ध एक दफे कहा था कि जबतक लिच्छवी लोग अपने सन्थागार में नियमपूर्वक जाते रहेंगे, तबतक अजातशत्रु उनको नहीं जीत सकेगा । लिच्छवीगण अपने सन्थागार में जाकर तर्क- युक्ति से आपस में आलोचना करके ही कोई निर्णय करते थे । इस तरह धर्म - आचरण के धर्म की बुनियाद है युक्ति । मैं आध्यात्मिक धर्म के बारे में नहीं जानता हूँ; क्योंकि वह मेरे वश के बाहर की बात है | इस आचरण-धर्म की चर्चा उपनिषद में भी मिलती है । अभी-अभी माथुर साहब टी० एस० इलियट की चर्चा कर रहे थे । टी० एस० इलियट की सर्वोत्तम कविता वेस्टलैंड का अन्तिम खण्ड है, ‘What the thunder said इसमें उन्होंने वृहदारण्यकोपनिषद् के ही एक सूत्र के आधार पर आचरण धर्म का काव्यात्मक संकेत किया है। नर, असुर, और देव ने एक-एक कर प्रजापति से पूछा कि हमारे लिए धर्म क्या होगा, हमारा अनुशासन क्या होगा ? प्रजापति ने कहा--द, द, द-दत्त, दयध्वम् और दाम्यत । चूंकि आदमी परिग्रही होता है, इसलिए प्रजापति ने प्रादमी से कहा कि दान करो । असुर कुछ क्रूर होते थे, इसलिए प्रजापति ने उनसे कहा कि दया करो और देवता चूँकि इन्द्रिय-सुखों में डूबे रहते थे, इसलिए प्रजापति ने उनको कहा कि भाई थोड़ा दमन करो -- आत्म नियंत्रण करो | इस तरह उपनिषद् में भी आचरण का ही उपदेश है कि हमें क्या करना चाहिए, मनुष्य-जीवन का क्या कर्तव्य होना चाहिए । मतलब यह कि आचरण का निर्णय करना धर्म का सबसे बड़ा थी । जिस समय 1 १. एक से अधिक परतवाली चर्मपादुका को गरगरण उपाहन कहा गया है: महावग्ग, ५. ५ १२ (पृष्ठ २०६ ) । २. वज्जी अभिहं सन्निपाता सन्निपातबहुलावज्जी समग्गा सन्निपतन्ति समग्गा वुदुहन्ति समग्गा वज्जिकरणीयानि करोन्ति ..... वज्जी अपञ्चत्तं न पञ्ञापेन्ति पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दन्ति यथापञ्ञते पोराणे वज्जिधम्मे समदाय वत्तन्ति .. एकमेकेन पि भो गोतम, अपरिहानियेन धम्मेन समन्नागतानं वज्जीनं वुद्धियेव पाटिकं, तो परिहानि को पन वादो सत्तहि अपरिहानियेहि धम्मेहि ॥ दीघनिकाय - २ ३ १ ४-५ (पृष्ठ ५९-६१ ) । ३. The Waste Land and Other Poems. T. S. Eliot, Faber and Faber, London. 1968, pages 42-43, Jain Education International ४. तदेतदेवैषा देवी वागनुवदति स्तनयित्नुदं द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति । तदेतत् त्रयं शिक्षेत् दमं दानं दयामिति । बहादारण्यकोपनिषद्, ५ २ ३. Eliot ने इसे Deussen द्वारा किये गये जर्मन अनुवाद Sechzig Upanishads des Veda से ग्रह किया था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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