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स्वंबुद्ध एक मंत्री मेरा, दिया याद धर्म कर हेरा। . तबहि तुरत यह बाता मानी, जैन धर्म महिमा पहिचानी। अल्प कालमें धर्म प्रभावा, मिलामोहि यह राज्य सुहावा । पर अब चव्यन चिन्ह दिखाई, पलमें यह नखर हो जाई ॥ तेहि अवसर आवा एक देवा, चलिये करन जिनंदपद सेवा। द्रधर्माः तब ललित पिछाना, ताहि वचन सीस घर माना ।
नंदिश्वरजी द्वीपमे, कीना तुरत पयान ।
स्वयंप्रभा कर संगमे, धरा हृदय में ध्यान ॥ अरिहंतपद पूजन मन लागा, बढ़त प्रेम दुखहिं सब भागा। पुनि मन तीर्थ करन मन धारा, पुनि पयान तीरथ कर प्यारा ॥ चव्यन हुआ चलत मग माहीं, शुद्ध भावसे नृप घर पाही।
जंबुद्वीपमें सिंधु तट, पूर्व विदेह सुहाय । लोहा गल नृपके भवन, ललित जीव जन्माय ॥ ॥ तीसरा भव समास ॥
(अपूर्ण) ॥शीलकुलकम् ॥ रचयिताः-जैनाचार्य श्री विजयपद्मसूरिजी.
(dis Y४ २५७ था मनुस धान.)
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जियसम्माउहरीओ-दसण फासाइणा सया रमणी ॥ वट्टावेए तासे-विविहे सच्छंदया गारी ॥८५॥ पड़ बाहुरुहिरपाणं-विहियं सुकुमालियाइ तम्मसं ॥ मक्खिय मेवं खित्तो-सामी गंगापवाहम्मि ।।८।। विग्धयरी सुहमग्गे-नारी णञ्चाविओ सिवो सिग्छ । रमणीइ पवईए-विस्सामित्तो वि कामवसो ॥८॥ मेणय महदणं-जाओ नारीप्पसंगपन्भट्ठा । आसाढदारणिया-रमणीचाओ महालाहो ॥८॥
चिंतेइ क्कलचिरी-करणाहेहिं पिया मए पानी॥ १गचा तायसयासं-सपसम्णिदू णमइ वायं ॥८९॥