________________
3०४
જનધર્મ વિકાસ
नाव बूर पावत अति भारा, तिमि हिंसक डूबत मजधारा । झूठ ठगी चोरी पर नारी, करत प्रेम दुखपावत भारी ॥ जो नर इनका रखे खयाला, ते होवे सुख सम्पति वाला ।
केवलि गुरु की देसना, सुन निनार्मी सुख पाय । मन वैराग्य जगाय कर, सम्यक्त्व लिया उठाय ॥ परमगती की व्याधि, पांच अणुवृत धारिया।
पुनि मुनि शीस नवाय, काठ भार लेकर चली ।। भवन आय करके वह बाला, नानाविधि तप करत सुवाला ॥ पूर्ण युवति होगइ वह बाला, हुआ विवाह नहीं तेहि काला । कटुक तूंवी त्याग अधिकारी, तिमि निनार्मीकि दशा विचारी ॥ अनसन वृत पाले वह बाला, करे युगंधर मुनि ढिग काला ।
सुनहु देव ललितांग तुम, जाओ मुनि वर पास ।
बाला को देकर दरस, पूरो उसकी आस ॥ अंत समय जो इच्छा होवे, वहि गति तिन प्राणी होवे ॥ तु मोहे देख त्यागे वह देहो, पूर्व जन्म तुम वरे सनेही । यह सुन ललितदेवं तहं आवा, निनार्मीका को दरस दिखावा । पूर्व जन्म कर प्राती गाढ़ी, पति दर्शन कर अति ही बाढ़ी। देह त्याग पूर्व कर रुपा, पाया तुरत निनार्मी अनूपा ॥ पूर्व जन्म कर नाम सुहावा, ताहि पाय देव सुख पावा । ललितदेव भोग कर नाना, जेहि अति घाम छाह सुख जाना ॥ बहुत समय बीना इहि भांती, ललित भोग कीना अति शांती । पुनि चन्यन के चिन्ह पिछाना, ललित देव तब अति भय माना ।। तुरत स्वभाव पलट हो जावा, प्यारी नारी को तब विसरावा। बहु विधि अशकुन देखन लागा, तवहि ताहि मन जगा विरागा ॥ परिवर्तन को देख कर, कहे रानी कर जोर ।
छोड़ाहे मुझ प्रेमको, कहिये दोष किम मोर ।। यह सुन ललित देव इमि बोला, सुन्दर बदनीछूट यह चोळा । पूर्वजन्म कर खुटी कमाई, तासे चव्यन चिन्ह दिखाई ॥ पूर्वजन्म विद्याधर राजा, थामें हीन धर्म कर काजा । विषय भोग करत दिन राता, यामें अपनी उमर बिताला ॥