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________________ ३१८ જેનધર્મ વિકાસ. ही हैं। पारसी लोग अग्नि देवका बहुत आदर सत्कार करते हैं अपने पैगम्बर जरथोत्र का सुंदर फोटो (चित्र) भी रखते हैं साथही सूर्यदेव की भी पूजा करते हैं क्या मूर्तिपूजा इन से कोई भिन्न पदार्थ है ? किसी भी साकार पदार्थ की या इष्ट देवकी प्रतिमाकी पूजा मूर्ति की पूजा ही है। मूर्ति पूजा इतने से संकुचित क्षेत्र में ही सीमित न रह सकी किंतु उसने अपना आधिपत्य सारे यूरोप पर भी जमा लिया था जिसके प्रमाण में आज भी भूगर्भ से विविध २ प्रान्तों और राष्ट्रों में विविध प्राचीन जैन मूर्तियां निकलती हैं । आष्ट्रीया, बुडापेस्ट, अमेरिका, श्याम, इजिप्ट, (मिश्र) देश, ग्रीस, रोम, इङ्गलैण्ड, आयर्लेण्ड, स्काटलेण्ड, फ्रांस, तुर्कस्थान, अरबस्थान, जावा, सुमात्रा, सीलोन, काबुल, जापान, लंका, ईरान, स्पेन, मेड्रिड, नोर्वे, स्वीडन, मेक्सिको और चीन आदि राष्ट्रो में भी मूर्तिपूजा प्राचीन काल में थी और वर्तमान में भी है उक्त सर्व देशो में कोई अग्नि की, कोई सूर्य की, कोई लींग की, तो कोई विष्णु की पूजा करते हैं तात्पर्य यह है कि कोई किसीकी भी पूजा क्यों न करे किंतु मूर्तिपूजा को सारा संसार ही आदर की दृष्टि से देखता है। यूरोप के भिन्न २ भागों में भिन्न २ विधि विधानों से मूर्तिपूजा की जाती है । यूरोप की मूर्तिपूजा में तो किसी को संदेह भी नहीं हो सकता है। न केवल यूरोप ही मूर्ति को महत्व देता था किंतु अखंड भारत भी मूर्ति पूजक ही था। कबीर पंथी और नानक पंथी जिसले मूर्ति पूजा के विरोधी माने जाते है वे भी अपने पवित्र धर्मस्थान में अपने पूज्य पुरुषों की समाधियां बनाकर उनकी विविध द्रव्य सामग्री से पूजा करते हैं। अनेक श्रद्धालुजन अपने स्मरणीय स्मारकों के दर्शनार्थ आते है सिक्ख एवं कबीर पंथी लोग न केवल समाधियां ही बनाते हैं किंतु अपने पूज्य पुरुषों की पादुका को स्थापन कर वंदन करते हैं। शास्त्रको उच्चासन पर स्थापित कर उसको मूर्ति वत् पूजा करते हैं अब बताइये कि ये सब प्रयत्न मूर्तिपूजा के ही उत्तेजक और द्योतक नहीं तो और क्या है ? पादुका और समाधियों को जो वंदन करते हैं वे पूज्य बुद्धि से करते हैं या केवल पत्थर समझकर ही ? मस्तक जो नमाया जाता है वह गुरु बुद्धिसे ही नमाया जाता है। यदि पत्थर समझकर कोई मस्तक नमाता है तो यह उसका श्रममात्र ही है। सिक्खो और कवीर पंथियों के अतिरिक्त आर्य समाजी भी मूर्तिपूजा की विरोध रुपा कलंक कालिमा से वंचित नहीं रह सके हैं इन पर भी उक्त विरोधियों का प्रभाव अवश्य पडा है ऐसा स्पष्ट झलकता है किंतु क्या ये वास्तव में मूर्तिपूजा के विरोधि ही हैं या उसके अनुमोदन भी हैं ? मेरा प्रत्यक्ष अनुभव एवं अनुमान तो यही है कि ये मूर्ति पूजा के विरोधक न होकर उसके अनुमोदक ही हैं कारण अनेक जाहिर पब्लिक व्याख्यानो में, सभा सोसाइटियों में, जयंत्युत्सवों में और तत्संबंधित जुलूसों में स्वामी दयानंद सरस्वती के फोटो(चीत्र) को सुंदर पुष्प हारों से पूजित एवं शृंगारित करके उसे उच्च पदासीन कर पालखी और सवारी आदि में रख शहर में चारोकोर फिराते हैं।
SR No.522522
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages40
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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