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________________ तीर्थ-स्तुतिमा. ૩૧૯ क्या इस प्रकार करने में उनका यह उद्देश्य नहीं रहता कि सब लोग हमारे पूज्य पुरुष के मंतव्यों का अनुकरण करें ? यदि इस प्रकारकी कोई भावना ही नही रहती है तो उनका इतना प्रयत्न ही श्रममात्र है। क्या आर्य समाजियों की अन्तरात्मा इस बातकी साक्षी दे सकती है कि दयानंद सरस्वती के चित्र का इतना मान सन्मान करना मूर्तिपूजा का प्राकारान्तर नहीं है ? कहना ओर वस्तु हैं और तदनुसार आचरण करना और वस्तु है। कहने में और करनेमें दिन रात का अंतर है। कहना जितना सरल है करना उतनाही कठिन है। कहने में समय नहीं लगता किंतु करने में युग के युग व्यतीत होते है। इनके बाह्म कृत्यों से स्पष्टसिद्ध होता है कि ये लोग वास्तव में मूर्तिपूजा की उपासना करते हुए भी अपने दुराग्रह वश उसका विरोध करना नहीं छोड़ते। चित्रको पूज्यभाव से उच्चपदासीन कर गांव में चारोंओर फेरना, सभा में जयंत्युत्सव पर उसका सन्मान करना, अपने २ घरों में स्वामीजीके फोटोको लगाकर प्रतिदिन प्रातःकाल उनके दर्शन करना उनकी पूजा करना ए क्या मूर्तिपूजा नहीं है ? आर्यसमाजी ही मूर्तिपूजक नहीं किंतु स्थानकवासी भी जो कि अपनेको मूर्तिके कट्टरविरोधी बतलाते हैं मूर्तिपूजाके अनुमोदक ही हैं । स्थानकवासियोंके स्थानकोंमें कितनेही साधु साध्वियोंके फोटो लगे हुए नजर आते हैं। फोटोही नहीं किंतु मारवाड, मेरठ, पंजाब, मेवाड आदि भिन्न २ प्रांतोंके ग्रामों में स्थानकवासी साधुओंकी समाधियां, पादुकाएं, मूर्तियां और चित्र आदि बनाकर उनकी द्रव्य भावसे पूजा की जाती है जिसके प्रमाण अद्यावधिभी विद्यमान है। इन समाधियों और पादुकाओंके दर्शनार्थ अनेक श्रद्धालु एवं भक्त लोग दूर२ से आते हैं। क्या उक्त दर्शनार्थी पूज्यबुद्धिसे नहीं आते हैं ? ऐसा कौन अभागी होगा जिसको अपने धर्म के प्रतिष्ठित व्यक्ति के प्रति श्रद्धांजलि, पूज्य बुद्धि और भक्तिभाव न होगा ? अरे! पूज्य पुरुषों के चित्र बनाने व मूर्तियां बनाने का उद्देश्य और तात्पर्य यही रहता है कि हम भी इन पूज्य पुरुषों की मूर्तियों को देखकर अपने हृदयको निर्मल बना इन्हींके समान निर्मल गुणों का पालन करसकें। भपूर्ण. तीर्थ-स्तुतिमा. રચયિતા–મુનિરાજ શ્રી સુશીલવિજ્યજી. (છાણ) गित मां. [શ્રી અષ્ટાપદ તીર્થની સ્તુતિ જ્યાં રત્નમય, સમાન ચોવીશ, બિબ સોહે જિન તણું, થયું મોક્ષ કલ્યાણક તીહાં, સુત નાભિ રાજેન્દ્ર તણા; જિન નામ બાંધ્યું રાવણે, ગૌતમ તસ્ય યાત્રા કરી, ते तीर्थ साह प्रमात, हाय मति Al. [१]
SR No.522522
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages40
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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