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જૈનધર્મ વિકાસ
दाय विशेष, वर्ण या आश्रम विशेष से नहीं है किंतु मानव के साथ सर्वव्यापक संबंध है। जहां मानवता है वहीं धर्म है। जहां पशुता का साम्राज्य है वहां अंधेर और अधर्म है।
धर्म रूपी विशाल वृक्ष की शीतल छाया के नीचे बैठ कर त्रपताप रूप गर्मों के निवारण का सब को जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। धर्म के गंभीर रहस्य को तथा व्यापक सिद्धान्तों के महत्व को न समझ कर उसके विशाल रूप को संकुचित कर देना तथा उसके नाम पर परस्पर वितंडावाद खड़ा कर क्लेश करना बुद्धिमत्ता नहीं है। हां, जिज्ञासा एवं तत्व निर्णय दृष्टि से उसके रहस्य की गवेषणा में सतत प्रयत्न शील बने रहना चाहिये। हिंदी के प्रतिभा संपन्न कवि गुप्तजी की भी धर्म के विषय में उक्ति है कि:
ऊंचा उदार पावन सुख शांति पूर्ण प्यारा, ___ यह धर्म वृक्ष सबका निजका नहीं तुम्हारा । रोको न तुम किसी को छाया में बैठने दो,
कुल जाति कोई भी हो संताप मेटने दो। जब मनुष्य मनुष्यत्व को पहिचान कर धर्म के वास्तविक उद्देश्य को समझ लेता है तब उसके जीवन में विश्वव्यापक मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है। वह जाति पांति के विभेदों को महत्व नहीं देता है तथा संसार के प्रपंचों से प्रायः निर्लिप्त ही रहता है। उसकी सुख एवं दुःख में, संपत्ति तथा विपत्ति में, हर्ष और शोक में प्रायः समभावना ही हो जाती है। इतना ही नहीं किंतु धर्म रूपी शीतल जल का प्रभाव ही ऐसा है कि जिससे पारस्परिक द्वेष, वैमनस्य, और कलह रूपी अग्निज्वाला शीघ्र ही प्रशांत होकर प्रलय हो जाती है।
. धर्म हमारी हृत्तंत्री के सुप्त तारों को जागृत कर आकृत कर देता है। उस अंकार के प्रभाव से ही उसमें से आमोद प्रमोदकारी कर्तव्य ज्ञान रूपी रागरागिनियों की मधुर तथा कर्णप्रिय विविध मंद मंद स्वरध्वनि निकलती रहती है। इस स्वर ध्वनि से मनुष्य आत्मकल्याण के एक ऐसे अमोध मार्ग पर पहुंच जाता है कि जिससे पुनपुनः जन्ममरणरूप आवागमन का झगडा ही हमेशा के लिये मिट कर अखंड शांति और अनंत सुख साम्राज्य का अनुभव हो।
वास्तव में निभायी, सहगामी, हितचिंतक, मित्रवत् सहायक, शांतिदायक तथा भवोदारितारक यदि कोई अबिमश्वर पदार्थ है तो केवल एक धर्म ही है। अन्य विश्व व्यापक इहलौकिक पदार्थों का संबंध तो शरीर के साथ
ही परिमित है कितुं धर्म का संबंध सदा काल आत्मा से ही है। माता पिता बांधवादिक स्मशान भूमि पर्यंत ही शरीर के सहगामी हैं, धन पादरज