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________________ ૨૦૧ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિ પૂજા मुनि धर्म लाभ पुनिदीना, साह धन्य भाग्य निज चीना । दान प्रभाव हिं सेठको, उपजा ज्ञान महान ।। मोक्ष बीज अंकुर जमा, समकित प्राप्त सुजान । सार्थवाह उपाश्रय आवा, वंदन कर श्री गुरु सिर नावा ।। धर्म वखाण करे गुरु राई, सुन साहू अति प्रीती छाई । धर्म ही स्वर्ग मोक्ष कर दाता, धर्म हीन नर अति विलपाता ॥ मंगल मूल धर्म हे भाई, धर्म नाव भव खाइ तराइ । धर्म जीव कर पालन करई, धर्म प्रभाव सु संपति वरई ।। उज्वल गुण अरु मान बढ़ावे, पाप कर्म सब नास करावे। धर्म करत उन्नति हो जावे, नर तीर्थकर गोत्र बंधावे ॥ धर्मवान सब सिद्धि भोगे, नासे पाप कर्म कर रोगे। बिन नर दे धर्म नहीं होई, याते धर्म करहु सब कोई ।। अपूर्ण शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा ( लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजी) , ( ४. ६. ५०४ १७८ था अनुसंधान ) हमारे पूर्वाचार्यों ने तो शास्त्रों में, नीतियों में, स्मृतियों और पुराणों में यथास्थान मानवता के साथ धर्म का अभेद्य संबंध एवं धर्म की विश्वव्यापक महत्ता बतलाते हुए समाज का ध्यान इस ओर विशेष आकर्षित किया है और स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन किया है कि-हे भव्यो ! तुम कैसी भी प्रवृत्ति करो किंतु कर्तव्य विमुख मत बनो। प्रत्येक कार्य में धर्म को सन्मुख रखो। धर्म के अंश को और उसके महत्व को किसी भी अवस्था में तथा किसी भी प्रवृत्ति में कम मत समझो। कर्तव्यधर्मपतित मानवजीवन बकरी के गले के स्तन के समान निःसत्व एवं निष्प्रयोजन रूप है। ... मानवता के अंशमात्र महत्व को समझे हुए के हृदय में भी आत्म कल्याण की भावना सतत जागृत रहती है वास्ते धर्म का अवलंबन लेना भी उसके लिये आवश्यक माना गया है। बिन। उस अवलंबन के अभिलाषा की पूर्ति ही नहीं हो सकती है। धर्म का संबंध किसी खास व्यक्ति विशेष, संप्र.
SR No.522507
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages52
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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