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सिद्धान्त का यह अत्यन्त सरलीकृत रूप है। कवि ने पदे पदे शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल को व्याख्यायित किया है। "
'पासणाहचरिउ' का प्रधान रस शान्त है। 11-12वीं सन्धियों को छोड़कर शेष में मुनि की शांत तपस्या, मुनि तथा श्रावकों के शुद्ध चरित्रों का विस्तृत वर्णन है। अनेक स्थलों में कवि ने संसार की अनित्यता तथा जीवन की क्षणभंगुरता दिखलाकर वैराग्य उत्पन्न किया है। "
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'पासणाहचरिउ' में वीर रस का भी सुन्दर परिपाक हुआ है। 11वीं सन्धि पूर्ण वीर रस में है, वहाँ भाषा भी ओजयुक्त बनी है । "
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'पासणाहचरिउ' में अलंकारों का बाहुल्य है । उपमा तो यत्र-तत्र - सर्वत्र है। मालोपमा विशेष है। काव्य-सौन्दर्य में अनूठी उत्प्रेक्षाओं का उपयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त दृष्टान्त, व्यतिरेक, सन्देह, अर्थान्तर, न्यास, तुल्ययोगिता, ब्याजस्तुति आदि अलंकार भी मिलते हैं। 'पार्श्व' के कैवल्य की प्राप्ति पर कवि ने संख्यात्मक क्रम से सुन्दर चित्रण किया है।"
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" अपभ्रंश को हिन्दी के आदिकाल के साहित्य का आधार माना जाता है। अपभ्रंश काल में 'कड़वक' और 'दोहे' में अभिव्यंजित ग्रन्थों ने आवश्यकता, मूल्यांकन और साहित्यिक गवेषणा से वाङ्मय की श्रीवृद्धि की है। इसी परम्परा में महनीय कृति 'पाहुडदोहा' एक लघुकायिक मुक्तक रचना है, जिसके रचयिता मुनिश्री रामसिंह हैं। इसका सम्पादन डॉ. हीरालाल जैन ने किया है। इस कृति में कुल दो सौ बाईस दोहे हैं।”
“मुनि रामसिंह कृत अपभ्रंश की कृति पाहुडदोहा अध्यात्म और रहस्यवाद की स्वानुभव-प्रधान अद्भुत रचना है। "
“राजस्थान निवासी मुनिश्री रामसिंह का ग्रन्थ 'पाहुडदोहा' उपदेशप्रधान है, अतः उपदेशात्मक वाणी में जीवन की सरल, सरस अनुभूति का समन्वय कर मुनिश्री ने इसे गूढ़ और सुन्दर बना दिया है। छन्द भी ऐसा छोटा चुना है कि जिसमें थोड़े शब्दों में बहुत कहने की शक्ति समाविष्ट है। छन्द की दृष्टि से इस कृति का मूल्यांकन करते हैं तो कल्पना हो जाती है कि किस प्रकार इस दोहा छंद में काव्यकार ने अपने गम्भीर विचारों को मानवीय दुर्बलताओं पर पूर्णतया विचार कर उपदेश के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। "
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