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अपभ्रंश भारती 21
कड़वक में तृतीय काल 'सुसमा-दुसमा' का वर्णन है। पंचम कड़वक में चतुर्थकाल 'दुसमा-सुसमा' का वर्णन है। छठे कड़वक में पंचम काल 'दुसमा' का तथा सातवें कड़वक में छठे काल 'दुसमा-दुसमा' का वर्णन है।
_ 'काल' अर्थात् 'समय', जिसके निमित्त या सहयोग से वस्तुओं का परिवर्तन ज्ञात होता है। संसार में घटित प्रत्येक क्रिया-कलाप, घटना काल/समय के परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त होती है, प्रकट होती है। काल वस्तुओं, द्रव्यों के परिणमन-परिवर्तन में एक उदासीन सहायक है, निमित्त है। - जैनदर्शन में काल के मूलतः दो भेद माने गये हैं - 1. अवसर्पिणी. काल व 2. उत्सर्पिणी काल। जिस काल में जीवों की आयु, बल, बुद्धि, शरीर की ऊँचाई, धन-सम्पदा, सुख आदि उत्तरोत्तर घटते हैं, ह्रास की ओर उन्मुख होते हैं उस काल को ‘अवसर्पिणी काल' कहते हैं और जब जीवों की आयु आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, विकास की ओर उन्मुखता होती है तब ‘उत्सर्पिणी काल' कहलता है। काल एक चक्र (पहिये) की भाँति निरन्तर गतिमान है। जैसे - एक गतिमान चक्र (पहिया) ऊपर से नीचे - नीचे से ऊपर - इसी क्रम से घूमता हुआ गति करता है उसी प्रकार काल-चक्र भी गति करते हुए ऊपर अर्थात् उन्नति/ विकास से नीचे अवनति/हास की ओर आता है और फिर नीचे अर्थात् अवनति/ ह्रास से ऊपर उन्नति/विकास की ओर जाता है। यह ऊपर से नीचे अर्थात् उन्नति/ विकास से अवनति/ह्रास की ओर या सुख से दुःख की ओर अग्रसर काल 'अवसर्पिणी काल' कहलाता है और अवनति/हास से उन्नति/विकास की ओर, दुःख से सुख की ओर अग्रसर काल 'उत्सर्पिणी काल' कहलाता है।
____ इन दोनों कालों में उन्नति/विकास व सुखों के स्तर के अनुरूप छह-छह उपविभाग माने गये हैं। अवसर्पिणी काल के छह उपविभाग हैं -
1. सुसमा-सुसमा, 2. सुसमा, 3. सुसमा-दुसमा, 4. दुसमा-सुसमा, 5. दुसमा और 6. दुसमा-दुसमा।
'समा' का अर्थ है - काल, समय। 'समा' में 'सु' = अच्छा व 'दु' = बुरा विशेषण लगाने से सुसमा-दुसमा शब्द बने हैं, ये विशेषणयुक्त शब्द स्वतः