________________
अपभ्रंश भारती 21
75
ही अपना अर्थ स्पष्ट करते हैं। अर्थात् जब अच्छा समय, अच्छा काल हो तब वह 'सुसमा' है और जब बुरा है तो 'दुसमा' है। इन्हें बोलचाल की भाषा में 'सुखमा व दुखमा' भी कहा जाता है, ये शब्द भी अपने भाव को स्पष्ट करते हैं। जब सुख की ओर गति हो तब ‘सुखमा' और जब दुःख की ओर गति हो तो 'दुःखमा'। गणना के अनुसार सुसमा-सुसमा को पहला काल, सुसमा को दूसरा काल, सुसमा-दुसमा को तीसरा काल, दुसमा-सुसमा को चौथा काल, दुसमा को पाँचवाँ काल तथा दुसमा-दुसमा को छठा काल भी कहा जाता है। 1. सुसमा-सुसमा (सुखमा-सुखमा)
इस काल में सर्वत्र सुख ही सुख होता है। भूमि धूल व कंटक आदि से रहित होती है। मनुष्य सदाचारी व निर्व्यसनी होते हैं, परस्पर ईर्ष्या व द्वेष रखनेवाले नहीं होते।
इस काल में परिवार, ग्राम, नगर आदि की व्यवस्था नहीं होती, न कोई व्यापार आदि होता। लोग कुछ भी परिश्रम-कार्य आदि नहीं करते। दस प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा उनकी वस्त्र, भोजन, घर, आभूषण आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। लोग कल्पवृक्षों से अपनी आवश्यकता व वांछा के अनुसार वस्तु की याचना करते हैं, कल्पवृक्ष उन्हें वे सामग्री प्रदान कर देते हैं। इसप्रकार इस काल में किसी प्रकार का अभाव या दुःख नहीं होता, अतः जीव सुख ही सुख का भोग करते हैं, इसलिए यह काल उत्तम भोग-काल या भोग-भूमि कहलाता है। इस काल की अवधि चार कोडाकोडी सागर होती है। इस काल से देह की ऊँचाई, बल, आयु शनैः-शनैः घटने लगते हैं। 2. सुसमा (सुखमा)
इस काल में भी जीव सुखपूर्वक रहते हैं, यह काल मध्यम भोग-काल/ भोग-भूमि कहा जाता है। इस काल की अवधि तीन कोडाकोडी सागर है। 3. सुसमा-दुसमा (सुखमा-दुखमा)
इस काल में सुख के साथ दुःख भी रहता है। यह जघन्य भोग-भूमि/ भोग-काल कहलाता है। इस काल की अवधि दो कोडाकोडी सागर है। यह काल