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अपभ्रंश भारती 21
'पयरि' छन्द भी इसी पादाकुलक से विकसित हुआ जान पड़ता है। इसकी गेयता ने इसे अधिक कोमल बना दिया है, जिसका स्पष्टीकरण सूरतुलसी आदि भक्तों के लीला-पदों में हो जाता है। यह भी इन्हीं चर्यापदों के परवर्ती विकास का परिचायक है। उनकी 'टेक' में इन्हीं के समान 16 मात्राओं का विधान मिलता है। तुलसी की 'विनय पत्रिका' के पद 'मन पछतैहैं अवसर बीते' में टेक की पंक्ति पादाकुलक की होने से 16 मात्रा की है और सूरदास के 'खेलन हरि निकसे ब्रज होरी' पद में भी 16 मात्रा की चौपाई छंद की है। टेक का प्रयोग गीतात्मकता के लिए ही होता है।
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इस प्रकार कतिपय छन्दों के विवेचन के बाद निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि अपभ्रंशकालीन छन्द-संपदा निश्चय ही बड़ी समृद्ध एवं पुष्ट रही है और अपने परवर्ती हिन्दी - काव्य की उपजीव्य बनकर, लम्बे समय तक उसे प्रभावित करती रही है, जिसके लिए हिन्दी - साहित्य उसका चिर - ऋणी रहेगा। वस्तुतः ये सभी जैन तथा जैनेतर कवि वीतरागी एवं आध्यात्मिक थे। परन्तु, अपनी इस आध्यात्मिक निधि को लोक-जीवन के लिए कल्याणकारी बनाने के हिमायती थे। इसी से लोक भाषा और लोक - छन्दों की गीतात्मकता और सरसता का इन्होंने प्रश्रय लिया तथा चिरजीवी साहित्य का सृजन किया, जो शताब्दियों के बाद आज भी किसी-न-किसी प्रकार लोक-जीवन की अक्षय निधि बना है। निसंदेह, ये सभी सच्चे अर्थों में कलमजीवी, कलाजीवी और पर - हितार्थ - जीवी होने से 'कविर्मनीषी परिभूस्वयंभू' कहलाने के अधिकारी पात्र थे।
1. 'पल्लव' की भूमिका सुमित्रानन्दन पंत, पृष्ठ 28 2. 'छन्द: पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते'
छन्द-प्रभाकर, पृ. 10
3. हमारा ऐसा अनुमान है, गाथा वर्ग के मात्रिक जातिच्छंद मूलतः लोक-गीतों के छन्द रहे हैं
यही गाथा छन्द प्राकृत के
अधिकांश मात्रिक छन्दों डॉ. भोलाशंकर व्यास,
प्राकृत- पैंगलम् भाग - 2, संपादक
का मूल स्रोत है। पृ. 335
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