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अपभ्रंश भारती 21
___ 'पादाकुलक' की संधि करने पर - पाद + आकुलक = पदों का संग्रह करनेवाला अर्थ मिलता है। यथा - 16 मात्रा (i) जो यण ॥ गोअर ॥ ॥ आला ॥ ॥जाला ॥
॥आगम ॥ ॥ पोथी । । इष्टा ॥ ॥ माला ।।40॥3 16 मात्रा (ii) एक्कु ण किज्जइ तंत ण मंत।
णिअ धरिणी लइ केलि करंत॥ णिअ घरे घरिणी जाब ण मज्जइ।
ताव कि पाँच वण्ण विहरिज्जइ।। इनकी मात्राओं में सर्वत्र समानता नहीं मिलती; कहीं 14, कहीं 15 और कहीं 24 तथा 28 मात्राओं तक का प्रयोग मिलता है। यथा, 14 मात्रा का चर्यापद -
दिढ करिअ महा। सुह परिमान।
लुइ भनइ गुरु। पुच्छिअ जान। यह परम्परा बौद्ध-सिद्धों से नाथ-पंथियों में होती हुई हिन्दी के संत-भक्तकवियों तक पहुँचती है और जयदेव के गीत-गोविन्द की पदावली से भी साम्य स्थापित करती है - . भूसुकुपा - ‘भुसूक भनइ कत राउतु भणइ कत सअला सहज सहावां।"
जयदेव - धीर समीरे यमुना तीरे बसति बने बनमालीं। - गीत-गोविन्द गोरखवानी- मन मैं रहिणां भेद न कहिणां बोलिवा अमृत वाणी।
अगिला अगनी होइवा अवधू तौ आपण होइवा पांणी॥"
दादू- कलि धौल बरन पलटिया, तन मन का बल भागा।
जोबन गया जुरा चलि आई, तब पछितावन लागा।।38