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________________ अपभ्रंश भारती 21 णहह मग्गि णहवल्लि तरल तडयांडिवि तडक्कइ। ददुर रडणु रउद्द कुवि सहवि ण सक्कइ।। निबड निरंतर नीरहर दुद्धर धरधारोहयरु। किय सहउ पहिय सिहरट्ठियइ दुसहउ कोइल रसइ सरु।।148॥" इसी प्रकार 'छप्पय' छंद मिश्रित छंद है। ‘पृथ्वीराज-रासौ' में इसका बहुलश प्रयोग हुआ है और इसे 'कवित्त' नाम दिया गया है - 'सुन गरुड़ पंख पिंगल कहै, छप्पै छन्द कवित्त यह' (109)। इसमें, जैसाकि नाम से स्पष्ट है, षट् पद होते हैं, जिनमें प्रथम चार 11, 13 मात्राओं के विश्राम से 'प्राकृत पैंगलम्' के अनुसार 'रोला' छन्द के और अंतिम दो चरण 28 मात्राओं वाले 'उल्लाला' छन्द के होते हैं।28 'संदेस-रासक' में इसे 'वस्तु' नाम दिया गया है और हिन्दी के सूर तथा तुलसी ने 'छप्पय' का ही उपयोग किया है। हय कट्टत भू भयौ, भये भूपयन पलट्यौ। पय कट्टत कर चल्यो, करहिं सब सेन समिट्यौ।। कर कट्टत सिर भिरयौ, सिरह सनमुष होय फुट्यौ। सिर फुट्टत धर धस्यौ, धरह तिल तिल होय तुट्यौ।। धर तुट्टि फुट्टि कविचंद कहि, रोम-रोम बिंध्यौ सरन। सुर नरह नाग अस्तुति करहि, बलि बलि बलि छग्गन मरन।।2214|" 'नानक-वाणी' में भी विरह-वर्णन की बारह मासा-विधान्तर्गत छप्पय-छन्द ही किंचित् मात्रा-भेद से अवलोकनीय है।" __इस प्रकार स्पष्ट है कि छन्दों की गति-विधि तथा रूप भाषा के साथसाथ बदलता रहता है और युगीन भावाभिव्यक्ति के अनुरूप किन्हीं विशिष्ट छन्दों का प्रयोग या तो प्रधान हो जाता है अथवा नवीन छन्द की सृष्टि होती है। यथा, बौद्ध-सिद्धों के चर्यापदों में ‘पादाकुलक' छन्द की ही प्रधानता रही है और यह परम्परा मध्ययुगीन संत-भक्तों के पदों तक प्रयुक्त होती मिलती है। ‘पादाकुलक' को प्राकृत-फंगलम् में चार चरणों वाला और प्रत्येक चरण में 16 मात्राच्छन्द कहा है। इसमें लघु-गुरु का कोई विधान नहीं होता।
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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