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अपभ्रंश भारती 21
हरिगीतिका गहि भूमि पास्यौ लात मास्यौ बालिसुत प्रभु पहिं गयौ। संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयौ।। करि दाप चाप चढ़ाय दस संधानि सर बहु वरषई। किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई।।
दोहा तब दसमुख रावन के सीस भुजा सर चाप।
काढे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप।। इस छन्द का प्रयोग आदिकालीन 'पृथ्वीराज रासो' में कवि चन्दवरदाई ने भी किया है। लेकिन वहाँ इसके 'मालती', 'गीतामालची' तथा 'गीतामालती' नामों का भी संकेत मिलता है -
गीतामालती सजि चल्यौ तामं युद्ध धामं केन कामं पूरयं। घन घोर घट्टा समुद फट्टा इम उलट्टा सूरयं।।4.21।। धुंधरिम भानं षुरेसानं हेम जानं हल्लयं।
कनवज्ज थानं परि भगानं सूरतानं सल्लयं ।।4.22।।
और ‘परमाल रासौ' के 10वें जयचन्द-मिलाप खण्ड में पृ. 210 पर इसके लिए केवल 'छंद' नाम का प्रयोग किया है। 'छन्द-प्रभाकर' में इसे 28 मात्रा का छन्द कहा गया है, जिसमें 16, 12 पर यति तथा अंत में 15 का विधान बताया है। जायसी, मंझन तथा कबीर ने 'उल्लाल' छन्द को भी अपनाया है। यथा -
उल्लाल पिउ पिउ करत जीउ धनि सूखी बोली चारिक भांति। परी सो बूंद सीप जनु मोती हिय परी सुख सांति।।"
उल्लाल
सदा अचेत चेत जीव पंछी, हरि तरवर करि बास। झूठे जग जिनि भूलसि जिवरे, कहन सुनन की आस।।।