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अपभ्रंश भारती 21
अरिल्ल - सज्जि सेन सामंत सूर वर । गज्जे गेन सु लग्गि महाभर ।। वंदे गरट चले गति मंदं । मानि सूर सामंत अनंदं । । " डिल्ल - तणु दीन्ह सासि सोसिज्जइ । असु जलोहु णेय सोसिज्ज || हियउ पडिक्कु पडिउ दीवंतरि । पडिउ पतंगु णाड़ दीवंतरि ।। 7
कड़वक - शैली में 'घत्ता' देने का तात्पर्य पाठक की चित्तवृत्ति में एक ही प्रकार के छन्द-प्रयोग से उत्पन्न ऊब को दूर करने का ही ध्येय है। जिस प्रकार नर्तक तबले की एक विशेष ताल के उपरांत नये जोश में भरकर, नृत्य में गति ला देता है। अपभ्रंश में इस 'घत्ते' के लिए 'रोला', 'गाहा', 'उल्लाला' तथा 'आर्या' आदि छन्दों का प्रयोग मिलता है। किन्तु वहाँ 'घत्ता' नामक छन्द विशेष का भी प्रयोग किया जाता रहा होगा, जैसा कि मुनि कनकामर के 'करकंडुचरिउ' में द्रष्टव्य है -
घत्ता- कवि माणमहल्ली मयणभर, करकंडहो समुहिय चलिय ।
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थिरथोरपओहरि मयणयण, उत्तत्तकणयछवि उज्जलिय ।। 3.2 ।।
'घत्ता' 62 मात्रा का छन्द है । छन्द प्रभाकर में इसके विषम पदों में 18 तथा सम-पदों में 13 मात्राओं के विधान के साथ अंत में तीन लघु ( III ) का संकेत किया है। किन्तु, 'प्राकृत - पैंगलम्' में मात्रा तो इतनी ही कही गई हैं और अन्तिम तीन लघु को भी इंगित किया है; पर दोनों चरणों में चतुर्मात्रिक सात गणों का भी उल्लेख किया गया है। 18
हिन्दी के मध्यकालीन कवियों सूर, तुलसी तथा जायसी ने दोहा और सोरठा तथा कहीं-कहीं दोनों का प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त तुलसीदासजी ने रामचरित मानस, लंकाकांड में 'हरिगीतिका' छन्द को जोड़कर नवीनता का परिचय दिया
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हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरे आगे ।। देखि विकल सुर अंगद धायौ । कूदि चरन गहि भूमि गिरायौ । ।