________________
अपभ्रंश भारती 21
इसके अनेक नाम प्रचलित हुए हैं। 'पृथ्वीराज - रासौ' में दोहा, दुहा, दूहा नाम मिलते हैं। कबीर आदि संतों की 'साखियाँ' तथा नानक के 'सलोकु' वस्तुतः दोहा के ही नामांतर हैं। तुलसीदासजी ने भी 'साखी, सबदी, दोहरा' कहकर इसके 'दोहरा' नाम को इंगित किया है। जहाँ इसने अपभ्रंश के जैन - कवियों की नीतिपरक तथा उपदेशात्मक वाणी को संगीत की माधुरी से अनुप्राणित कर लोक- हृदय की निधि बनाया (पाहुड दोहा, सावयधम्म दोहा); वहाँ सिद्धों ने भी पूर्व में अपने लोक-व्यापी प्रभाव हेतु दोहा कोशों के रूप में इसे अपनाया। सिद्ध सरहपा ने तो 'णउ णउ दोहाच्छन्दे कहावि न किम्पि गोप्य' कहकर अपनी अभिरुचि का परिचय दिया। इसे भले ही 'गाहा' या 'गाथा' लोक - छन्द का विकसित रूप कहा जाए, परन्तु तुक का प्रयोग अपभ्रंशकालीन विभूति है । अस्तु, यह अपभ्रंश काल का ही विशेष द्विपदात्मक 48 मात्राओं का प्रचलित छन्द है। इसके दो चरण होते हैं तथा 13, 11 मात्राओं पर यति का नियम है और अंत में एक लघु ( 1 ) होता है। 7 सिद्ध साहित्य के संबंध में डॉ. धर्मवीर भारती ने इसके 13+11, 13+12 तथा 14+12 तीन रूपों का संकेत किया है।"
55
अपभ्रंश के इस लाडले छन्द का सर्वप्रथम प्रयोग महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक में मिलता है -
मई जाणिअं मियलोयणी, णिसयरु कोइ हरेइ ।
जाव ण णव जलि सामल, धाराहरु बरसेइ | 14.8।।
. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसकी भाषा को अपभ्रंश ही माना है तथा प्रक्षिप्त मानने के आधार का खंडन किया है। संस्कृत के अनेक नाटकों के बीचबीच में लोक-भाषा प्राकृत एवं अपभ्रंश की गीतियों का विधान मिलता है । तदुपरि हेमचन्द्राचार्य के 'प्राकृत व्याकरण' में अनेक वीर एवं श्रृंगार रसपूर्ण दोहे उपलब्ध होते हैं। 12वीं सदी की अब्दुल रहमान कृत 'संदेश - रासक' नामक अपभ्रंश की जैनेतर रचना में भी दोहा-छन्द का सफल प्रयोग दर्शनीय है। राजस्थान के 'ढोला मारू रा दूहा' जैसे लोकगीतों में यह बहुत दूर तक लोकप्रिय रहा है। पूर्व में बौद्ध सिद्धों की वाणी का प्रचार भी दोहा के माध्यम से हो रहा था। उनके 'दोहाकोश' इस सत्य के द्योतक हैं तथा अनेक वज्रगीतियों में भी इसका प्रयोग किया