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अपभ्रंश भारती 21
+ उल्लाला) आदि । अस्तु, इस भाँति लोक धरातल पर बने रहकर अपभ्रंशसाहित्य ने मात्रा-छन्दों के विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया।
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भाषा के विकास-क्रम में हिन्दी भाषा का सीधा संबंध अपभ्रंश के साथ है। इसी से, उसका साहित्य अपने प्रारंभ काल में न केवल उन्हीं प्रवृत्तियों से पूर्णतः प्रभावित है; प्रत्युत काव्य-रूप एवं छन्द-योजना की दृष्टि से भी अपने परवर्ती रूप में बहुत दूर तक उसी का अनुवर्तक है। अतः अपभ्रंश की इस महत्त्वपूर्ण कड़ी को भुलाकर हिन्दी के विकास की परिकल्पना नहीं की जा सकती। यों उसने अपभ्रंश के साथ अपनी पूर्ववर्ती प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य की विशेषताओं तथा प्रवृत्तियों को भी आत्मसात किया है; किन्तु, विशेष झुकाव अपभ्रंश की मात्रिक-तुकांत छन्द-पद्धति की ओर ही अधिक रहा है। इसके मूल में हिन्दी-भाषा की अपनी प्रकृति ही है। डॉ. नगेन्द्र का कथन इस विचार से उल्लेख्य है।' अपभ्रंश की इस छन्द - संपदा के अनेक छन्द हैं। द्विपदी - दुबई, गाहू, उल्लाला, उग्गाहा, घत्ता, स्कंधक, झूलना, खंजा, गाहा, मालिनी आदि। सम-चतुष्पदी - दीपक, खेटक, अहीर, विलसित, पद्धरिका, पादाकुलक, उपवदनक, मदनावतार, रास, प्लवंगम, रोला, हरिगीता, पद्मावती, त्रिभंगी, जलहरण, मदनहर, मरहट्टा आदि। अर्ध समचतुष्पदी विद्याधर, मनोहर, दोहक, वसंतलेखा, कोकिलावली, अभिसारिका आदि। इनके अतिरिक्त मात्रा, कुंडालिका, छप्पय, रड्डा, वस्तु आदि उल्लेख्य हैं। यों तो यह विषय अपनेआपमें स्वतंत्र शोध का विषय है; परन्तु हम अपने निबंध की सीमा में कतिपय छन्दों के स्वरूप, प्रयोग तथा प्रभाव की मीमांसा करेंगे और देखेंगे कि अपभ्रंश के इन छन्दों की विभुता एवं विन्यास कितना महत्त्वपूर्ण है।
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'दोहा' अपभ्रंश साहित्य का प्रमुख छन्द रहा है और परवर्ती हिन्दी साहित्य में भी अनेक रूपों में व्यवहृत हुआ है। काव्य रूपों के विकास में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसका प्रयोग मुक्तक रूप से नीति काव्यों की अभिव्यक्ति का ही आधार नहीं बना है, प्रत्युत पद्धरिया, आरिल्ल, रोला, चउपई छन्दों के साथ मिलकर वर्णनात्मक प्रबन्ध काव्यों के निरूपण में भी सहभागी रहा है। विविध छन्द ग्रन्थों में इसके ‘दुवहअ' (स्वयंभू छंदस् तथा वृत्तजाति समुच्चय), 'दोहक' (छन्दोऽनुशासनम्), 'दोधक' (प्राकृत- पैंगलम् ) तथा 'दोहा' (छन्द कोश तथा छन्द प्रभाकर) प्रभृति नामों का संकेत मिलता है। इसी प्रकार हिन्दी साहित्य में भी