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________________ अपभ्रंश भारती 21 53 खलयण सिरसूलं, सज्जणानन्द मूलं। पसरइ अविरोलं, मग्गणाणं सुरोलं।। सिरि णविय जिणिन्दो, देइ चायं वणिंदो। वसुहय जुइजुत्तो, मालिणी छंदु वुत्तो।।3.4 सुदंसणचरिउ संस्कृत के पिंगल-शास्त्र के अनुसार जहाँ 'यति' होनी चाहिए वहाँ पर भी अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर मालिनी के एक चरण के दो चरण बना डाले। और सम-चतुष्पद मालिनी अर्ध-सम अष्टपद मालिनी बन गया। इस प्रकार अनेक नये छंदों की सृष्टि अपभ्रंश-साहित्य की विभूति है। अस्तु, तुकान्तता इन छन्दों की मौलिकता है। छन्द के पादान्त में समान स्वर-व्यंजना की नियोजना तुक कहलाती है। तुक राग का हृदय है। जो स्थान ताल में सम का है, वही स्थान छन्द में तुक का है। . मात्रा-छन्दों के विकास में अपभ्रंश-काल में इस तुकांत-प्रवृत्ति का प्रभाव यह हुआ कि अनेक लोक-गीतों की धुनें एवं लोक-नृत्यों की तालें भी यहाँ विविध छन्दों के उदय की मूलभूता बन गईं। डॉ. एच.डी. बेलणकर ने भी 'रासा', 'पद्धटिका' तता ‘घत्ता' आदि इस काल के मात्राच्छन्दों का संबंध लोक-नृत्यों से स्वीकार किया है तथा उन्हें आठ मात्राओं के धुमाली-ताल में गेय कहा है। वस्तुतः, अपभ्रंश-काव्य प्रधानतया गेय-परम्परा का काव्य है। अतः, उसमें सुनिश्चित मात्रागणना के साथ-साथ गेयता के अनुरूप शब्द-योजना भी मिलती है। इसी से अनेक साहित्यिक छन्दों का व्यवहृत गेय-रूप उसके छंद-विशेष की 'देशी' कहलाता था। इन गीतों को आभीरों के लोक-गीतों से आया हुआ कहा है तथा चौथी शताब्दी के आसपास से इनका प्रारंभ माना है। इस विचार से कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' में इन तुकान्त पदों में 'दोहा' (48 मात्रा), 'चच्चरी' (20 मात्रा), 'पारणक' (25 मात्रा) तथा 'शशांकवदना' (10 मात्रा) आदि दर्शनीय हैं। इसके व्यतिरिक्त अनेक मिश्र-छंदों का प्रयोग भी इस काल में मात्रा-छन्दों के विकास की निश्चित दिशा का परिचायक है। यथा - कुण्डलिका (दोहा + काव्य या रोला), चन्द्रायन (दोहा + मदनावतार या कामिनी मोहन), रासाकुल (आभाणक या प्लवंगम + उल्लाला) तथा रड्डा या वस्तु (मात्रा + दोहा) और छप्पय या कवित्त (काव्य
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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