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अपभ्रंश भारती 21
प्राकृत लोकभाषा ने अपनी प्रकृति के अनुरूप भिन्न मात्रा-छन्दों की परम्परा का सृजन किया। इन मात्राच्छंदों में गणों की संख्या नियत नहीं थी। गण या वर्ण जितने भी हों, मात्राओं की संख्या ठीक बैठनी चाहिए। यही छन्द-परम्परा परवर्ती अपभ्रंश-भाषा के प्रादुर्भाव के समय पनपी। प्राकृत के मात्रिक-छन्द संस्कृत के वर्ण-वृत्तों की तरह अतुकांत थे। इन्होंने अपनी लोकानुभूति के धेय की संपूर्ति हेतु ही इन्हें अपनाया और विशिष्ट मोड़ देकर वैयक्तिक रूप से अभिमंडित किया। इसी से वहाँ 'गाथा' से मिलते-जुलते ‘गाहू', 'विगाथा', 'उद्गाथा', 'गाहिनी' आदि छन्दों का अवतरण हुआ। इसी 'गाथा' छन्द को डॉ. भोलाशंकर व्यास ने प्राकृत के अधिकांश मात्रिक-छन्दों का मूल स्रोत कहा है और इस वर्ग के सभी ‘छन्दों का स्रोत लोक-गीतों को माना है।'
___ परन्तु, परवर्ती अपभ्रंश-साहित्य में प्राकृत के इन मात्राच्छन्दों का विकास एक सोपान और बढ़ा। उसके अनेक रचयिता जैन-मुनि तथा जैनेतर कवि-कलाकार लोक-प्रचलित विविध पद्धतियों को आत्मसात करके ही अपनी काव्याभिव्यक्ति द्वारा धार्मिक तथा रसात्मक धेय की पूर्ति करते थे। निदान, प्राकृत भाषा-पंडितों के संस्पर्श से लोक-मानस से दूर होती जा रही थी और अपभ्रंश का उदय लोकधरातल पर होने लगा था। अस्तु, उसके साहित्य में लोक गीतात्मकता के समावेश से अनूठे संगीत का उदय होने लगा था, जिसने उसके छन्द-विधान को विशेष रूप से उद्गीरित किया। यों तो, गेयता प्राकृत के अतुकांत मात्रा छन्दों की भी विशेषता थी; पर अपभ्रंश यहीं नहीं ठहरी, उसने इन गेय छन्दों के चरणांत में तुक का विधान कर संगीत की तान में प्राण डाल दिये। इस प्रकार कभी सम (2, 4) और कभी विषम (1, 3) चरणों में तुक मिलाने की पद्धति को जन्म दिया। इस दृष्टि से अपभ्रंश के छन्दों में अन्त्यानुप्रास का अपना नूतन प्रयोग है, जो निश्चय ही मात्रा छन्दों के विकास का सूचक है। यह विशेषता न संस्कृत के वर्णवृत्तों में थी और न प्राकृत के मात्राच्छन्दों में। तुक का यह प्रयोग मात्राच्छन्दों तक ही सीमित नहीं रहा, अथच अपभ्रंश के इन लोक-गायक कवियों ने इस प्रकार प्राचीन वर्ण-वृत्तों में भी एक नवीनता उत्पन्न की। यथा निम्न मालिनी छन्द में -