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अपभ्रंश भारती 21
अक्टूबर, 2014
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अपभ्रंश साहित्य की छन्द-संपदा - विभुता और विन्यास
- डॉ. त्रिलोकीनाथ ‘प्रेमी'
काव्य मानव-मानसी की सुख-दुःखात्मक तीव्रतम भावानुभूतियों की शब्दमयी अभिव्यक्ति है। शब्द एक ओर जहाँ अर्थ की भाव-भूमि पर पाठक को ले जाते हैं, वहाँ नाद के द्वारा श्राव्य-मूर्त विधान भी करते हैं। शब्द से हमारा आशय भाषा से है; जो नाद का ही विकसित रूप है, ध्वन्यात्मक चित्र है। इसी से
आंतरिक संगीत की गरिमा भी उसमें निहित है। अस्तु, काव्य एवं संगीत परस्पर मौन रहकर एक-दूसरे का आलिंगन करते हैं। भावों के सौन्दर्य से यदि संगीत खिल उठता है, तो संगीत के समन्वय से भाव हृदय का संस्पर्श कर जगमगा उठते हैं। फलतः राग का विस्तार होता है और राग कविता की भाषा का प्राण है। राग का अर्थ आकर्षण है। यह वह शक्ति है जिसके विद्युत्स्पर्श से खिंचकर हम शब्द की आत्मा तक पहुँचते हैं, हमारा हृदय उनके हृदय में प्रवेश कर एक-भाव हो जाता है। बस, काव्य-भाषा में इस सौजन्य-प्रादुर्भाव के लिए ही छन्दों का सृजन हुआ है। जिस प्रकार कविता में भावों का अन्तस्थ हृत्स्पंदन अधिक गंभीर, परिस्फुट तथा परिपक्क रहता है; उसी प्रकार छन्दबद्ध भाषा में भी राग का प्रभाव, उसकी शक्ति अधिक जागृत, प्रबल तथा परिपूर्ण रहती है। मनुष्य आदिकाल से छन्द का आश्रय लेकर अपने ज्ञान को स्थायी तथा अन्य-ग्राह्य बनाने का प्रयत्न