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अपभ्रंश भारती 21
अपने में स्थित हो गया है, वह जैसा भाव करता है, वैसी ही प्रवृत्ति करता है। वह निर्भय है, उसके संसार भी नहीं ( 105 ) । जिनके सर्व विकल्प छूट गये हैं और जो चैतन्य भाव में स्थित है, वे ही निर्मल ध्यान में स्थित कहे गये हैं ( 14 ) । हे जोगी ? तुम देह से भिन्न निज शुद्धात्मा का ध्यान करो, उससे निर्वाण की प्राप्ति होगी ( 130 ) । चित्त को निश्चल कर आत्मा का ध्यान करने से अष्ट कर्म नष्ट होकर सिद्ध होते हैं (173)।
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आत्मानुभूति में बाधक - विषय कषाय
पंच इन्द्रियों के विषयों को संयमित करें। जिह्वा और पर स्त्री गमन को रोकना ही चाहिये ( 44 ) । तुमने न तो पाँचों बैलों (इन्द्रियों) की रखवाली की और न नन्दनवन (आत्मा) में प्रवेश किया। क्या ऐसे ही संन्यासी बन गये ? ( 45 ) । हे सखि? प्रियतम (चेतन) बाहर के पाँच (इन्द्रियों) के स्नेह में लगे हुए हैं, उनका आना सम्भव नहीं लगता ( 46 ) । अर्थात् पंच - इन्द्रियों के भोग में आत्मानुभूति सम्भव नहीं होती। हे मूढ़ ! यह देहरूपी महिला तब तक संतापित करती है, जब तक मन निरंजन आत्मा के साथ समरस नहीं होता ( 65 )। लोभ से मोहित और विषय - सुख माननेवाले को गुरु प्रसाद से अविचल बोध नहीं मिलता ( 82 ) | अरे मनरूपी ऊँट, तू इन्द्रियों के विषयों के सुख से रागभाव मत कर ( 93 )। विषयों की प्रवृत्ति होने के कारण जीव को नरकों के दुःख सहन करने पड़ते हैं ( 119 ) । विषय किंपाकह के फल जैसे सुन्दर किन्तु मरण करानेवाले हैं। विषय सेवन दुःखदायक और कर्म बन्ध के जनक हैं (120-121-122 ) । गाथा 195 से 203 तक इन्द्रियों के भोगों के दूषित परिणाम दर्शा कर मन को ज्ञानमय आत्मा के साथ जोड़ने तथा निशि-दिन आत्मा-परमात्मा का ध्यान करने का उपदेश दिया है। जीवन मुक्त / धुरन्धर
वास्तव में जिनदेव निजदेव है। हे जोगी ? जिसके हृदय में एक परमदेव निवास करता है वह जन्म-मरण - रहित परमगति प्राप्त करता है (77)। जहाँ पर मल से रहित अनादि केवलज्ञानी भगवान स्थित हैं, वहीं उनके हृदय में तीन लोक प्रतिबिम्बित होते हैं (90)। जिसने अशरीरी सिद्धात्मा का लक्ष्य बनाया,