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अपभ्रंश भारती 21
वही निश्चित धनुर्धर है। शुद्धात्मा को दृष्टि में लेकर उसका अनुभव कर। जिसके जीवित रहते हुए पाँचों इन्द्रियों के साथ मन मर गया, उसे मुक्त जानना चाहिये; क्योंकि वह जीवन-मुक्त हो गया है (24)। सिद्धत्व चित्त के निर्मल होने के बाद प्राप्त होता है (89)। भावरहित वेश, तीर्थाटन एवं शुष्क-ज्ञान की निःसारता
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मज्ञान-शून्य क्रियाकाण्ड और बाह्य तपाचार की निस्सारता दर्शाते हुए प्रतिपादित किया कि उनसे परमसुख नहीं मिलता। उन्होंने आत्मानुभव को मुख्य करके बाहरी कर्मकाण्ड का निषेध किया। रहस्यवाद के आध्यात्मिक कवि मुनि रामसिंह ने भी निज-निरंजन परमात्मा को मुख्य कर बाह्य ज्ञान और तीर्थाटन की अपेक्षा चित्त की निर्मलता और आत्मज्ञान की महत्ता प्रतिपादित की, जो इसप्रकार है -
हे मूंड मुड़ानेवालों में श्रेष्ठ मुँडी! तुमने सिर मुंडा लिया किन्तु चित्त नहीं मुँडाया है। जिसने मन का मुण्डन किया उसके संसार का खण्डन होता है (136)। जिन्होंने मूंड मुँडाकर संयम की शिक्षा धारणकर धर्म की आशा बढ़ाई है उन्होंने केवल कुटुम्ब छोड़ा है; पराई आशा नहीं छोड़ी (154)। जो नग्नत्व पर गर्व करते हैं और व्याकुलता को नहीं समझते वे अंतरंग और बहिरंग परिग्रह में से एक का भी त्याग नहीं करते (155)। अध्यात्म में परभाव को जानना और फिर परभाव का ग्रहण नहीं करना ही त्याग माना है। मनरूपी हाथी को विन्ध्याचल (अभिमान शिखर) की ओर जाने से रोको (156)। जिसका चित्त भीतर में मैला है, उसका बाहर में तप निरर्थक है (62)।
जब तक गुरु-प्रसाद से देहस्थित देव को नहीं पहिचानते तभी तक कुतीर्थों में भ्रमण करते हैं (81)। राग-भावसहित एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण करने से क्या फल मिला? बाहर तो पानी से शुद्ध कर लिया, लेकिन भीतर में शुद्ध भाव के अभाव में क्या लाभ हुआ (163)। हे मूर्ख! तुमने तीर्थाटन किया, शरीर के चमड़े को धोया, किन्तु जो मन पापरूपी मल से मैला है, उसे किस प्रकार धोयेगा (164)! तीर्थाटन से शरीर को सन्ताप होता है, आत्मा में आत्मा