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अपभ्रंश भारती 21
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मन एकाग्र होकर थम जाता है तभी वह उपदेश समझता है। मन निश्चिन्त तभी होता है जब अचित्त से चित्त अलग कर लेता है (47)। मन को सहज रूप से स्वतंत्र-उन्मुक्त होने दो, जहाँ जाये जाने दो। जब मुक्ति नगरी की ओर जा रहे हो, तब हर्ष-विषाद कैसा? (49)। यह हठयोग के विरुद्ध सहज योग का प्रतिपादन है।
विषय-कषायों में जाते हुए मन को शुद्ध उपयोग में स्थिर करने से मोक्ष होगा। हे मूढ़! अन्य किसी तंत्र-मंत्र आदि से मोक्ष नहीं मिलेगा (63)। हे जीव! खाते-पीते मोक्ष मिलता तो भगवान ऋषभदेव इन्द्रिय-सुख क्यों त्यागते? (64)। अतीन्द्रिय आनन्द निर्विकल्प स्वभाव में है, इन्द्रिय सुख में नहीं।
शुभ परिणामों से धर्म (पुण्य) होता है और अशुभ परिणामों से अधर्म होता है; किन्तु दोनों को छोड़ देने पर पुनर्जन्म नहीं होता। अतः शुद्धोपयोग उपादेय है (73)। जबतक शुभाशुभ के विकल्प हैं तबतक अन्तरंग में आत्म-स्वरूप की सिद्धि स्फुरायमान नहीं होती (143)। आत्मा में पाप के परिणाम और कर्मबंध तभी तक होते हैं जबतक उपयोग में शुद्धता प्रकट कर परमनिरंजन का ज्ञान नहीं होता (79)।
साढ़े तीन हाथ के देवालय में एक बाल (परिग्रह) का (भी) प्रवेश नहीं है, उसी में सन्त निरंजन बसता है। तुम निर्मलचित्त से उसकी खोज करो। तात्पर्य यह कि सर्व परिग्रह एवं ममत्व त्याग कर शुद्धात्मा का अनुभव करो (95)। जब आत्मा अपने आप में स्थिर हो जाती है तब उसमें राग-द्वेष रूप मल नहीं लगते (91) यदि तुम चाहो तो मनरूपी ऊँट आज ही जीता जा सकता है (112)। आत्मध्यान का महत्त्व
केवल आत्मदर्शन ही वास्तविक परमार्थ है। अन्य सभी व्यवहार है। योगीजन इस एक पदार्थ को ही ध्याते हैं। आत्मा को छोड़कर जो अन्य का ध्यान करता है वह मूर्ख है। उसको केवलज्ञान कैसे हो सकता है? (69-68)। उत्तम आत्मा को छोड़कर अन्य किसी का ध्यान मत कर। जिसने मरकतमणि पहचान ली है उसे कांच से क्या प्रयोजन (72)। संसार से उदास होकर जिसका मन