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अपभ्रंश भारती 21
अज्ञान भाव नहीं करना चाहिये (145)। दर्शन ज्ञानमय निरंजन परमदेव आत्मा से अभिन्न है। आत्मा के स्वभाव में सच्चा मोक्षमार्ग है (80)।
शुद्धात्मा अनुभवगम्य है, इसका निरूपण निम्न दोहे में हुआ है - एक्कु सुवेयइ अण्णु ण वेयइ, तासु चरिउ णउ जाणहि देवई। जो अणु हवइ सो जि परियाणइ, पुच्छंतहं समित्ति को आणइ।।166।।
अर्थ - एक परमतत्त्व को अनुभव करने, जानने पर अन्य कुछ जानना शेष नहीं रहता। ऐसे तत्त्वज्ञानी का चरित्र देव भी नहीं जानते। वास्तव में तो जो अनुभव करता है वही जानता है, ऐसी स्वानुभव की महिमा है।
स्वानुभव गूंगे के गुड़ जैसा है जो किसी प्रकार लिखा, पूछा तथा कहा नहीं जाता। यदि गुरु उपदेश देते हैं, तभी चित्त में ठहरता है (167)। .
प्रियतम परमात्मा के दर्शन के लिए आत्मानुभवरूपी ज्ञानदर्पण का अवलोकन किया जाता है। जिनदर्शन का प्रयोजन निज-दर्शन है। इसी भावात्मक रहस्यवाद को दर्शाते हुए मुनिश्री रामसिंह कहते हैं कि - 'हे सखि! उस दर्पण का क्या करें, जिसमें अपना प्रतिबिम्ब न दिखाई पड़ता हो। धन्धा करनेवाला यह जगत मुझे प्रतिभासित होता है। किन्तु घर में रहते हुए भी गृहस्वामी का दर्शन नहीं होता (गाथा 123)। यहाँ सुमति सखी है और ज्ञान-परिणति रूपी सहेली के बीच रहस्यात्मक प्रश्न किया है। ध्येय और ज्ञेय की एकता से स्वसंवेदन होता है। आत्म-साधना के सोपान-प्रक्रिया
शुद्धात्मा के अनुभव के लिए हे योगी! वैरागी, इन्द्रियों एवं रसों में अनासक्त महानुभावों को अपना मित्र बना (133)। विकल्पों को विसर्जित कर अपने स्वभाव में मन धारण करो (134)। विषय-कषायों का त्याग कर जिनवर में मन लगा। तभी सिद्धपुरी में प्रवेश मिलेगा (135)। हे जिनवर! जबतक देह-स्थित (अपने)
आपको (आत्मा को) नहीं जानता तबतक आपको नमस्कार हो। फिर किसके द्वारा किसे नमस्कार हो (142)! संवर-निर्जरा करता हुआ जीव परमनिरंजन देव को नमस्कार करता है। (78)।