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अपभ्रंश भारती 21
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क्योंकि कपास को ओटे बिना वस्त्र कैसे बुना जा सकता है? यहाँ मिथ्यात्व को छोड़ सम्यक्त्व धारण करने का उपदेश दिया है। आत्मा-शुद्धात्मा का स्वरूप
__ आत्मा एक चैतन्य भाव है। वह पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, आकाश, काल और शरीर रूप नहीं है (गाथा 30)। वह रंग-रूपवान, दुबला-पतला, किसी वर्णलिंग, सबल-निर्बल, बालक-बूढ़ा और कोई भेषधारी नहीं है। (31-33)। देह का जन्म-जरा-मरण देखकर भय मत कर। आत्मा अजर, अमर, परम ब्रह्म है, उसे ही अपना स्वरूप मान (34)। कर्मोदय से उत्पन्न राग-द्वेष-मोहादि भाव आत्मा के नहीं है। हे जीव! ज्ञानमय आत्मा के भावों से भिन्न अन्य सभी भाव परभाव हैं। परभाव छोड़कर अपने शुद्धस्वभाव का ध्यान करो (38)। राग-रंग से रहित जो ज्ञानभाव की भावना भाता है वही संत, निरंजन, शिव है, उसी में अनुराग कर (39)। चेतन का स्वभाव ज्ञान-आनन्दमय है। ज्ञान द्वयरूप नहीं होता। त्रिलोक में एक देव जिनदेव हैं उनके ज्ञान में तीन लोक झलकते हैं। एक निजशुद्धात्मा को जानने से तीन लोक जान लिया जाता है। ज्ञान-स्वरूपी आत्मा को देह से भिन्न जान। जिसने अपनी देह में विराजित आत्मा-भगवन को परमार्थ से जान लिया वह वंदनीय हो गया (40-42)। देह देवालय में सर्व शक्तिवान देव बसता वह शिव है; वह जन्म-मृत्यु रहित, अनन्त ज्ञानमय त्रिभुवन का स्वामी है, वही निर्धांत शिवदेव है। उसकी शीघ्र खोज कर (54-55)। शिव शक्तिसहित है, ऐसा ज्ञान होने पर मोह. विलीन हो जाता है। ज्ञान-भाव, ज्ञान का ज्ञानमय देखना ही शुद्धात्मा की स्वसंवेद्य ज्ञानानुभूति या आत्मानुभूति है; उससे चित्त का अज्ञानमय संकल्पविकल्प दग्ध होता है। परमानन्द स्वभावी नित्य, निरामय ज्ञानमय आत्मा को जानने पर अन्य कोई भाव नहीं रहता। जिसने एक जिनदेव को जान लिया उसने अनन्त देवों को जान लिया। उसका मोह (मिथ्यात्व) चला गया (56-59)। जिनके हृदय में जिनदेव निवास करते हैं उसे पाप नहीं लगता।
देह से भिन्न ज्ञानस्वरूपी आत्मा है वही तुम हो। उसका अवलोकन करो। अधिक विकल्प और कथन करने से क्या लाभ है? (गाथा 108/146)। बिना नाद के जो अक्षर उत्पन्न होता है, वह ज्ञान स्वरूप आत्मा ही है। अतः कोई