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अपभ्रंश भारती 21
कि मेरे मन में ऐसा प्रियतम (परमात्मा) स्थित है जो संसार के विषय-भोगों से रहित, स्त्री की पहुँच के बाहर और अकुलीन है। उसके लिए ध्यानरूपी माहुर लाया गया है और इन्द्रियों के अंगों को श्रृंगार से सजाया है। तात्पर्य यह कि वीतराग निर्विकल्प शुद्धात्मा को राग-रंगों और इन्द्रिय के भोगों से आकृष्ट नहीं किया जा सकता। हे मूर्ख? विषय-कषाय को छोड़कर आत्मा में मन लगा और चारों गतियों का नाश कर अतुल परमपद प्राप्त कर (गाथा 199)। ____ पुण्य-पाप का गूढार्थ दर्शानेवाली गाथा द्रष्टव्य है -
उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु।
बलि किज्जउ तसु जोइयहि जासु ण पाउ ण पुण्णु।।193।। . अर्थ - हे जोगी! जो उजाड़ को बसाता है और बसे को उजाड़ता है, उसकी बलिहारी है; क्योंकि उसके न पाप है और न पुण्य! भाव यह है कि निर्विकल्प ध्यान में लीन साधु-सन्त अशुद्धभाव (पुण्य-पाप) की बस्ती उजाड़कर शुद्धात्मानुभूतिरूप शुद्धोपयोग परिणामों की बस्ती बसाते हैं, वे धन्य हैं।
कबीर भी इसी तरह का भाव व्यक्त करते हैं जब वे कहते हैं -
. 'धुन रे धुनिया धुन धुन, तेरी धुन में पाप न पुन'। प्रिय-परमात्मा के बिछोह का कारण - भ्रांति/माया/मिथ्यात्व
मुनि रामसिंह ने प्रिय-परमात्मा का प्रिया आत्मा या गुरु-शिष्य के विछोह का कारण माया, भ्रम या भ्रांति माना है। उन्हीं के शब्दों में -
अप्पा दंसणणाणमउ सयलु वि अण्णु पयालु।
इम जाणेविणु जोइयउ छंडहु माया-जालु।।70।।
अर्थ - आत्मा दर्शन-ज्ञानमय है। अन्य सभी भाव पयाल की तरह सूखी घास या भूस है। इसप्रकार जानकर आत्मावलोकन करो और माया-जाल को छोड़ो। तात्पर्य यह कि राग-द्वेष-मोह विभाव भाव हैं। ज्ञान स्वभाव का आश्रय लो तभी अनुभूति होगी।
आगे मिथ्यादृष्टि की पहचान बताते हैं -