________________
अपभ्रंश भारती 21
अध्यात्म की दृष्टि से कर्मादि द्रव्यकर्म, क्रोधादि भाव कर्म एवं शरीरादिक नो कर्मों से भिन्न एक, अखण्ड, त्रिकाली ध्रुव, निर्विकल्प, वीतराग, ज्ञायकस्वरूप शुद्ध आत्मा (परमात्मा) का अनुभव करता है। इसे आत्मानुभूति या ज्ञानानुभूति कहते हैं। आत्मानुभव से आत्म-श्रद्धान और आत्मज्ञान होता है। आत्मानुभव के काल में सर्वपरिग्रह और शुभाशुभ इच्छाएँ रुक जाती हैं। मात्र ज्ञाता-दृष्टा भाव अनुभव में आता है। यह रहस्यरूप सहज क्रिया होती है। शुद्ध भाव का आविर्भाव होता है। शुद्धोपयोग रूप आत्मस्थिरतानुसार बंधे कर्मों का झड़ना निर्जरा है। जब इच्छा-निरोध रूप तप और शुद्धोपयोग रूप आत्मध्यान से सर्व कर्मों की निर्जरा हो जाती है तब आत्मा अपने कारण स्वभाव के आश्रय से कार्य परमात्मारूप सर्वज्ञ, वीतरागी, सर्वदृष्टा, निरंजन, परमात्मा हो जाता है। आत्मा : द्वैत से अद्वैत
___ आचार्य कुन्दकुन्द ने पर से पृथक् एकत्व आत्मा का परिचय कराया और कहा कि अनादिकाल से भोग-बंध की कथा सुनी और अनुभूत की किन्तु पर से पृथक् (भिन्न) और अपने से अभिन्न आत्मा की कथा कभी नहीं सुनी और न उसका अनुभव किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने एकत्व-विभक्त आत्मा का परिचय : उक्त सात तत्त्व/नव पदार्थों के माध्यम से कराया। संसारी अवस्था में जीव, अजीव, आस्रव, पुण्य-पाप और बंध तत्त्व विकारी आत्मा के द्वैत पक्ष को दर्शाते हैं। संवर और निर्जरा आत्म-जागरूक शुद्ध आत्मा के अनुभव एवं स्थिरता सूचक अद्वैत-द्वैत की स्थिति दर्शाता है। तथा मोक्ष तत्त्व अद्वैत-परमात्मा को रेखांकित करता है। इस दृष्टि से जैन दर्शन में द्वैत-अद्वैत की रहस्यात्मकता समझना, अनुभूत करना तत्त्वों/ पदार्थों को भावबोधपूर्वक ग्रहण करना अनिवार्य है। वेदान्त में ब्रह्म सर्वव्यापी, एक और अद्वैत माना है। विद्या के प्रभाव से जीवात्माएँ उसी ब्रह्म में लीन हो जाती हैं और द्वैत समाप्त हो जाता है। जैनदर्शन में कर्ममुक्त अनंत आत्माएँ ब्रह्म-परमात्मस्वरूप हैं, जबकि वेदान्त में ब्रह्म एक है। इसप्रकार विवक्षा-भेद होते हुए भी वेदान्त और जैन दर्शन में अद्वैतवाद की कुछ समानता है। यह समानता कारण-परमात्मा और कार्य-परमात्मा का भेद समाप्त होने की अवस्था में अन्तरनिहित है।