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अपभ्रंश भारती 21
है, ज्ञान ही उसकी परिणति है। ज्ञान से भिन्न वह कुछ भी नहीं है। आत्मा परद्रव्य का कर्त्ता - भोक्ता नहीं है। वह त्रिकाली एक अखण्ड, ध्रुव, ज्ञायक, निष्क्रिय चिन्मात्र है। निष्क्रिय का तात्पर्य है कि आत्मा बंध- मोक्ष से परे है। शुद्ध परिणामिक (ज्ञायक) भाव ध्यान का ध्येय है। क्रोधादिक विकारी भाव आत्मा का स्वभाव नहीं किन्तु विकारी भाव है। शरीर और क्रोधादि की आत्मा से भिन्नता का ज्ञान भेद - विज्ञान से होता है। कर्मबद्ध आत्मा संसारी और कर्म - मुक्त आत्मा परमात्मा कहलाती है। भेद-विज्ञान से आत्मानुभव होता है। इसकी प्रक्रिया गूढ़ है। सभी आत्माओं का अस्तित्व स्वतंत्र होते हुए भी गुणों की अपेक्षा सब समान हैं।
चैतन्य से रहित पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं। जीव के राग-द्वेष - मोह रूप विकारी परिणामों के निमित्त से पुद्गल कर्म परमाणु आत्मा से सम्बद्ध हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं। जैनदर्शन में विशिष्ट पुद्गल परमाणुओं को कर्म कहते हैं। इन कर्मों के उदय से जीव की अनेक दशाएँ दुःख-सुख, गति जाति, मानअपमान, लिंग आदि मिलते हैं। शुद्धोपयोग रूप ध्यान की अग्नि से कर्म-कलंक भस्म होते हैं।
आस्रव-बंध, पुण्य-पाप परिस्पंद (क्रिया) को योग कहते होता है। यह दो प्रकार का है
हैं।
कषाय- युक्त आत्मा के मन-वचन-काय के योग से कर्म पुद्गल परमाणुओं का आस्रव शुभ योग और अशुभ योग । शुभपरिणामपूर्वक होनेवाला शुभ योग है, उससे पुण्यास्रव होता है और अशुभ परिणामपूर्वक होनेवाला
अशुभ योग है, उससे पापास्रव होता है। पुण्य और पाप दोनों बंधन हैं। शुद्धभाव अबंध होता है। शुद्धभाव की भावना से अखण्ड आत्मानुभव होता है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग से कर्मबंध होता है। आस्रवित कर्म पुद्गल परमाणुओं का आत्मा के विशिष्ट संयोग को बन्ध कहते हैं। बन्ध चार प्रकार का होता है प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध। संक्षेप में रागादिक परिणाम आस्रव है और उन रागादिक परिणामों का फल बन्ध है। ये दोनों त्याज्य और हेय हैं। दुःख और आकुलता के कारण हैं।
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संवर- निर्जरा - मोक्ष कर्मों के आस्रव को रोकना संवर है। आगम की दृष्टि से गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और चारित्र से संवर और निर्जरा होती है।