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अपभ्रंश भारती 21
ने इसे जगत का अद्वितीय आगम चक्षु कहा है 'न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति', 'इदमेकं जगच्चक्षुरक्षय' (आत्मख्याति कलश 244-245 ) । आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं घोषित किया कि जो आत्मा समयसार में प्रतिपादित आत्मवस्तु को अर्थ व तत्त्व से जानकर आत्मवस्तु में स्थित होता है; वह आत्मा उत्तम सुख (अतीन्द्रिय आनन्द) को प्राप्त करता है ( गा. 415 ) । समयसार में आत्मानुभव एवं आत्मलीनता को निरूपित करने हेतु नव तत्त्वों में छिपी आत्मज्योति को प्रकाशित किया है। शुद्धात्मा के अनुभव और सम्यग्दर्शन हेतु नवतत्त्वों को भूतार्थ नय से जानना - अनुभव करना चाहिये। नवतत्त्वों को इसप्रकार दर्शाया है" -
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भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्ण पावं च । आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं । ।13।। अर्थ भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नवतत्त्व ही मोक्ष हैं।
संवर,
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मूलतः तत्त्व सात हैं - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। पुण्य और पाप जो आस्रव के भेद हैं, इन्हें सम्मिलित कर देने पर नव पदार्थ हो जाते हैं। इन नव पदार्थों को जीव और अजीव के रूप में विभक्त किया जा सकता है। संवर आदि पर्यायें हैं।
जीव- अजीव तत्त्व जिसमें चेतना जानने-देखने की शक्ति पायी जाये उसे जीव कहते हैं। परमार्थतः चेतना अद्वैत है लेकिन उसके सामान्य- विशेष ये दो रूप हैं। सामान्य दर्शनरूप है और विशेष ज्ञानरूप है। वास्तव में आत्मा सदैव शुद्ध चैतन्य रूप है। समयसार में मोक्षमार्ग में स्थित आत्मा का स्वरूप इसप्रकार दर्शाया " है -
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अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सयारुवी ।
ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ॥38॥
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अर्थ दर्शन - ज्ञान - चारित्रपरिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से मैं
सदा एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन - ज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ और अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं, परमाणु मात्र भी मेरे नहीं हैं। आत्मा स्वभाव से ज्ञान स्वरूप