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अपभ्रंश भारती 21
जैनधर्म परमात्मा/ईश्वर में विश्वास करता है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्मा होने की शक्ति विद्यमान है। कर्म बंधन से मुक्त आत्माएँ कार्यपरमात्मा हो जाती हैं। वैसे तो स्वभावतः सभी आत्माएँ शुद्ध और कारणपरमात्मस्वरूप हैं; किन्तु विद्यमान विकार-विभावों के कारण वे संसार में भटक रही हैं। कर्म-बंधन से मुक्त वीतरागी आत्माएँ ‘कार्य परमात्मा' कहलाती हैं। वही सच्चे देव या जिनेन्द्र कहलाते हैं। वीतरागी जिनेन्द्रदेव से भिन्न कोई भी रागी-द्वेषीमोही जीव पूज्य नहीं हैं। षड्दर्शन समुच्चय के जैनमतम् के निम्न श्लोक द्रष्टव्य हैं -16
जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेष-विवर्जितः। हतमोह महामल्लः केवलज्ञान-दर्शनः।।45।। सुरासुरेन्द्र संपूज्यः सद्भूतार्थ प्रकाशकः।
कृत्स्न कर्मक्षयं कृत्वा संप्रातः परमपदम।।46।। अर्थ - जैनदर्शन में राग-द्वेष से रहित वीतराग, महामोह का नाश करनेवाले, केवलज्ञान और केवलदर्शन-वाले, देवेन्द्र और दानवेन्द्र से संपूजित, पदार्थों का यथावत सत्यरूप में प्रकाश करनेवाले तथा समस्त कर्मों का नाशकर परमपद मोक्ष को पानेवाले जिनेन्द्र को ही देव माना है।
अध्यात्म मार्ग में जिनेन्द्रदेव-रूप सच्चे देव की पहिचान और दृढ़ श्रद्धान आवश्यक माना गया है क्योंकि उनके स्वरूप के माध्यम से देह-देवालय में बैठे भगवान आत्मा का साक्षात्कार या अनुभव होता है। रहस्यदर्शियों को अखण्ड आनन्दानुभूति के लिए देव के स्वरूप को द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से जानना अनिवार्य है। उनके ज्ञान-श्रद्धान से अज्ञान-अंधकार के विनाश की प्रक्रिया प्रारंभ होकर आत्मस्वरूप का दर्शन/श्रद्धान होता है। इसका आधार तत्त्वज्ञान है। जैनदर्शन में आत्मा की शुद्धि या विकारी से अविकारी-परमात्मा होने हेतु सप्त तत्त्वों एवं नव पदार्थों के स्वरूप को समझना आवश्यक है। सप्ततत्त्व-नव पदार्थों का स्वरूप
रहस्यवादियों के लिए आत्मानुभूति का आध्यात्मिक मार्ग दर्शानेवाली आचार्य कुन्दकुन्ददेव की अमर कृति 'समयसार' जैनदर्शन का आधार है। आचार्य अमृतचन्द्र