________________
28
अपभ्रंश भारती 21 समानता या अन्तर है? जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव विश्व के प्रथम रहस्यवादी थे जिन्होंने विषय-भोगों का परित्याग कर शरीर के प्रति अत्यन्त उदासीनता दर्शाते हुए आत्मानुभव/आत्मसाक्षात्कार कर आत्मलीनता द्वारा सिद्धत्व की प्राप्ति की।
श्रीमद् भागवत में (अष्टम) ऋषभावतार का पूरा वर्णन है और उन्हीं के उपदेश से जैनधर्म की उत्पत्ति भी बतलाई है।12 "भागवतकार ने भगवान ऋषभदेव को योगी बतलाया है। यों तो कृष्ण को भी योगी माना जाता था। किन्तु कृष्ण का योग 'युगःकर्मसु कौशलम्' के अनुसार कर्मयोग था और भगवान ऋषभदेव का योग कर्मसंन्यास-रूप था। जैनधर्म में कर्मसंन्यास-रूप योग की ही साधना की जाती है। ऋषभदेव से लेकर महावीर-पर्यन्त सभी तीर्थंकर योगी थे। मौर्यकाल से लेकर आजतक की सभी जैन मूर्तियाँ योगी के रूप में ही प्राप्त हुई हैं।''13 यह स्मरणीय है कि भागवत में भगवान ऋषभदेव का वर्णन जैन पौराणिक वर्णनों के समान है। नाभिपुत्र ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इसकी पुष्टि हिन्दू पुराणों से होती है। प्रो. रानडे ने जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को एक भिन्न प्रकार के गूढ़वादी (रहस्यवादी) होना स्वीकार किया है।15 जैन रहस्यवाद : कारण परमात्मा एवं कार्य परमात्मा के द्वैत का अभाव ।
जैनदर्शन का मूल स्वरूप कषायपाहुड, षट्खण्डागम आदि सिद्धान्त ग्रन्थों एवं आचार्य कुन्दकुन्द की पाहुड रचनाओं और उनके टीका ग्रन्थों में पाया जाता है। जैनदर्शन वस्तु स्वातंत्र एवं स्वावलम्बन पर आधारित दर्शन है। विश्व अनादिनिधन है। इसका कोई सृजक, संरक्षक और संहारक नहीं है। विश्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों का समुदाय है। 'सद्रव्यलक्षणम्' द्रव्य का लक्षण सत् अर्थात् सत्ता है। सत्ता का कभी विनाश नहीं होता। अतः द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप द्रव्य त्रिलक्षणात्मक होता है। इसका अर्थ है अपनी सत्ता बनाए रखकर उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इसप्रकार विश्व स्वचालित है। वेदान्त सृष्टि का सृजक-संहारक ईश्वर को मानता है।