________________
अपभ्रंश भारती 21
मात्र जिनेन्द्रदेव को आराध्य माना है। इसमें 220 पद्य हैं। अन्तिम कुछ पद्यों को छोड़कर शेष दोहा रूप में हैं। इसप्रकार यह दूहाकाव्य है और अपभ्रंश भाषा की श्रेष्ठ रचना है। इसमें प्रतीकों का भी प्रयोग किया गया है। डॉ. हीरालालजी का कथन है कि “पाहुडदोहा में जोगियों का आगम अचित् और चित्, देहदेवली, शिव और शक्ति, संकल्प और विकल्प, सगुण और निर्गुण, अक्षर, बोध और विबोध, वाम-दक्षिण और मध्य, दो पथ, रवि-शशि, पवन और काल आदि ऐसे शब्द हैं और इनका ऐसे गहन रूप में प्रयोग हुआ है कि उनसे हमें योग और तांत्रिक ग्रन्थों का स्मरण आये बिना नहीं रहता।' इसप्रकार हिन्दी साहित्य में निर्गुणधारा की दीर्घ परम्परा जैन और बौद्ध संत-साधुओं के माध्यम से प्रवाहित हुई दिखाई देती है।
मुनि रामसिंह ने पाहुडदोहा में परमात्मप्रकाश में उपलब्ध अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा बोलचाल की होने पर भी कवि की पहचान स्पष्ट रूप से लिये हुए है। डॉ. ए.एन. उपाध्ये के मतानुसार - दोहापाहुड़ में अकारान्त शब्द के षष्ठी के एक-वचन में 'हो' और 'हुँ' प्रत्यय आते हैं किन्तु परमात्मप्रकाश में केवल 'हँ' ही पाया जाता है तथा तुहारऊ, तुहारी, दोहिं मि, देहहंमि, कहिमि आदि रूप परमात्मप्रकाश में नहीं पाये जाते।'' डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने पाहुडदोहा की भाषा की विशेषता बताते हुए लिखा - ‘मुनि रामसिंह की भाषा सशक्त, व्यंजनात्मक तथा पूर्णतः सांकेतिक है। यही विशेषता उत्तम काव्य की कही जाती है। वास्तव में उत्तम काव्य में व्यंग्य प्रधान होता है। अपने गूढ़ तथा आध्यात्मिक विचारों को स्पष्ट रूप से विभिन्न शब्द-संकेतों द्वारा अभिव्यंजित करने हेतु अभिव्यंजना का उचित आलम्बन लिया गया है। संक्षेप में, मुनि रामसिंह की भाषा काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त है।''
रहस्यवाद
भगवान महावीर की दिव्यदेशना से उद्भूत श्रुत-परम्परा की मूलधारा का अनुसरण करते हुए मुनि रामसिंह ने आत्मा की अखण्ड आत्मानुभूति को केन्द्रबिन्दु