SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 अपभ्रंश भारती 21 आचार्य अमृतचन्द्र ने ‘पंचास्तिकाय-पाहुड' की गाथा टीका 146 में पाहुडदोहा की गाथा 99 को उद्धृत किया, जो इस प्रकार है - अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वि अम्ह दुम्मेहा। तं णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणक्खयं कुणहि।। अर्थ - श्रुतियों का अन्त नहीं है, समय अल्प है और हम दुर्बुद्धि हैं। इसलिये मात्र वही सीखने योग्य है जो जरा-मरण का नाश कर दे। इसप्रकार मुनि रामसिंह आचार्य अमृतचन्द्र (दशवीं शताब्दी) के पहले हुए तभी अमृतचन्द्र अपनी टीकाओं में उनका उद्धरण देते हैं। आचार्य जयसेन ने भी उक्त गाथा को पंचास्तिकाय-पाहुड की गाथा टीका 154 में उद्धृत की है। आचार्य जयसेन का समय बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। __डॉ. ए.एन. उपाध्ये मुनि रामसिंह को जोइन्दु (छठी शती) एवं हेमचन्द्र के मध्य में हुए मानते हैं। उनके अनुसार - “रामसिंह योगीन्दु के बहुत ऋणी हैं, क्योंकि इनके ग्रन्थ का एक पंचमांश - जैसा कि प्रो. हीरालालजी कहते हैं - परमात्मप्रकाश से लिया गया है। रामसिंह रहस्यवाद के प्रेमी थे और सम्भवतः इसी से प्राचीन ग्रन्थकारों के पद्यों का उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थ में किया है। उनके समय के बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि मुनि रामसिंह जोइन्दु और हेमचन्द्र के मध्य हुए हैं। श्रुतसागर, ब्रह्मदेव, जयसेन और हेमचन्द्र ने उनके दोहापाहुड से कुछ पद्य उद्धृत किये हैं। दोहापाहुड और सावयधम्मदोहा में दो पद्य बिल्कुल समान हैं।''3 डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री का मत इसप्रकार है - "इसप्रकार मुनि रामसिंह के समय की निम्नतम सीमा सातवीं शताब्दी तथा अधिकतम सीमा नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। मेरे अपने विचार में उनको नौवीं शताब्दी का मान लेना चाहिए।' इसप्रकार, मुनिरामसिंह नौवीं शताब्दी के सन्त कवि हैं। रचना का स्वरूप पाहुडदोहा विशुद्ध अध्यात्मपरक एवं रहस्यवादी रचना है। इसमें धर्म के नाम पर प्रचलित पाखण्ड का विरोध ओजस्वी स्वरों में किया है। आराधना हेतु
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy