________________
16
अपभ्रंश भारती 21
जब आत्मज्ञान हो गया तो देहानुराग कैसा? जिसने आत्मज्ञानरूपी माणिक्य को पा लिया वह संसार के जंजाल से पृथक् हो आत्मानुभूति में रमण करता है -
जइ लद्धउ माणिक्कडउ जोइय पुहवि भमंत।
बंधिज्जइ णिय कप्पडइं जोइज्जइ एक्कंत।।216।।
विषयों का त्याग किए बिना आत्मानुभूति नहीं हो सकती। अतः विषयत्याग आवश्यक है। विषयों से पराङ्मुख होकर जो आत्मा का ध्यान करते हैं उन्हें असाधारण सुख मिलता है। विषय-त्यागी ही परमसुख पाता है। विषय सब क्षणिक हैं। इन्द्रिय सुख और मोक्षमार्ग भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। एकसाथ दोनों पर चलना असम्भव है, एक ही को चुनना पड़ेगा -
वे पंथेहि ण गम्मइ वे मुह सूई ण सिज्जए कंथा। विण्णि ण हुंति आयाणा इंदिय सोक्खं च मोक्खं च।।213।।
अर्थात् दो मार्गों पर नहीं जा सकता, दो मुखवाली सुई से कंथा नहीं सिया जा सकता। अरे अज्ञानी! इन्द्रिय सुख और मोक्ष दोनों साथ-साथ नहीं प्राप्त हो सकते। बाह्य कर्म-कलाप से यदि आन्तरिक शुद्धि न हो तो उसे भी व्यर्थ ही समझिए। यदि कर्म-कलाप से आत्मानुभूति न हो तो वह किस काम का?
सप्पिं मुक्की कंचुलिय जं विसु तं ण मुसइ। भोयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ।।15।।
अर्थात् साँप केंचुली को छोड़ देता है, विष को नहीं छोड़ता। इसीप्रकार विषय-भोगों के परित्याग से यदि विषयवासना और भोग-भाव नहीं छूटता तो अनेक वेष और चिह्नों को धारण करने से क्या लाभ? -
मुंडिय मुंडिय मुंडिया, सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया। चित्तहं मुंडणु निं कियउ संसारहं खंडणुतिं कियउ।।135।। कबीर के निम्न दोहे से उक्त छन्द की तुलना द्रष्टव्य है -
दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, हआ घोटम घोट। मन को क्यों नहीं मूंडिये, जामे भरिया खोट।।