________________
अपभ्रंश भारती 21
अक्टूबर, 2014
मुनिश्री रामसिंह का ‘पाहुडदोहा' - प्रोफेसर (डॉ.) आदित्य प्रचण्डिया, डी.लिट्.
अपभ्रंश को हिन्दी के आदिकाल के साहित्य का आधार माना जाता है। अपभ्रंशकाल में 'कड़वक' और 'दोहे' में अभिव्यंजित ग्रन्थों ने आवश्यकता, मूल्यांकन और साहित्यिक गवेषणा से वाङ्मय की श्रीवृद्धि की है। इसी परम्परा में महनीय कृति ‘पाहुडदोहा' एक लघुकायिक मुक्तक रचना है, जिसके रचयिता मुनिश्री रामसिंह हैं। इसका सम्पादन डॉ. हीरालाल जैन ने किया है। इस कृति में कुल दो सौ बाईस दोहे हैं। ‘पाहुड' शब्द का अर्थ जैनाचार्यों ने विशेष विषय के प्रतिपादक ग्रन्थ के अर्थ में किया है। ‘पाहुड' शब्द संस्कृत शब्द 'प्राभृत' का रूपान्तर माना गया है, जिसका अर्थ है - 'उपहार'। अतः ‘पाहुडदोहा' का अर्थ 'दोहों का उपहार'' समझा जा सकता है। इस कृति के साथ 'दोहा' शब्द तो छंद का बोधक ही है। प्राकृत से लेकर अद्यतन 'दोहा' छन्द की परम्परा चली आ रही है। अनेक उल्लेखनीय कवियों ने अपने उद्गारों की अभिव्यक्ति के लिए इस सारपूर्ण छन्द को अपनाया है। मुनिश्री रामसिंह इसी परम्परा के विदग्ध जैन मनीषी काव्यकार थे। मुनिश्री एक भावुक तथा उग्र अध्यात्मवादी थे। रूढ़ियों के मुनिश्री कटु आलोचक थे। कभी-कभी उनका स्वर सिद्ध कवियों से भी मिलने लगता है। अतः भाषाशैली के आधार पर हम मुनिश्री को दसवीं शती के आसपास का मान सकते हैं।