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अपभ्रंश भारती 21
चैत्र कृष्णा चतुर्थी को 'पार्श्व' को उनकी अविचलित ध्यानाराधना से शुक्ल ध्यान से जो कैवल्य की प्राप्ति हुई उसमें एक मिथ्यादर्शन को छोड़नेवाले, दो प्रकार से आर्त्त - रौद्र ध्यानों को त्यागनेवाले, तीन दण्डों को निशक्त करनेवाले, चार कर्मों को दहन करनेवाले, पाँच रिपुओं के नाशक, षट्रसों के त्यागी, सप्तभयों के जेता, अष्ट कर्मों के परिहारक, नौ प्रकार से ब्रह्मचारी, दस धर्मों के पालक, ग्यारह अंगों के चिंतक, बारह तप के धारी, तेरह प्रकार के संयमी, चौदह गुणस्थानों के आरोही, पन्द्रह प्रमादों के परिहारक, सोलह कषायों के विजेता, सत्रह प्रकार के संयमारूढ़ी, अठारह दोषों से बचनेवाले पार्श्व को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई जो मानव मन को आनन्ददायक और लोकालोक-प्रकाशक था।
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कवि पद्मकीर्ति का यह पार्श्वचरित पाठक और श्रोता दोनों के ही इहलौकिक वही और पारलौकिक सुख एवं अभ्युदय का कारक है । कवि की कामना है। कृतार्थ है, वही धन्य है जिसने इस चलायमान संसार-चक्र का त्याग किया
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स कियत्थु धणु पर सो जि एक्कु, जे मेल्लिउ चल संसार-चक्कु ।।
हे जिनेश्वर, जग के स्वामी! धन, धान्य या राज्य में कुछ नहीं मांगते । हे जग में श्रेष्ठ भट्टारक! हमें ऐसी बुद्धि दें कि हम आपके चरणों में लगे रहें
धण कण रज्जु जिणेस जग परमेसर आयहं किंपि ण मग्गहं । एहिबुद्धि जग - सारा देहि भडारा इह पइ तुह ओलग्गहं ।।11।।
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22, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा जयपुर-302018