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अपभ्रंश भारती 21
कवि ने पाँचवीं संधि में स्त्री-पुरुषों के विविध लक्षणों को बतलाया है। जिनमें दया-धर्म होता है वे ही मित्र हैं, ऐसे ही व्यक्ति विद्वानों की संगति करते हैं, वे ही माता-पिता की सेवा करते हैं।
'पासणाह चरिउ' का प्रधान रस शान्त है। 11-12वीं सन्धियों को छोड़ शेष में मुनि की शांत तपस्या, मुनि तथा श्रावकों के शुद्ध चरित्रों का विस्तृत वर्णन है। अनेक स्थलों में कवि ने संसार की अनित्यता तथा जीवन की क्षणभंगुरता दिखलाकर वैराग्य उत्पन्न किया है। अन्तिम चार संधियों में पार्श्वनाथ की पावन जीवनचर्या एवं ज्ञानमय उपदेशों से केवल शान्तरस की ही निष्पत्ति हुई है। पार्श्व की तपस्या में
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सम सत्तु - मित्तु सम रोस-तोसु, कंचण-मणि पेक्खड़ धूलि सरिसु ।
. सम सरिसउ पेक्खड़ दुक्खु - सोक्खु, वंदिउ णरवर पर गणइ मोक्खु ।।10.3।। उनके लिए शत्रु-मित्र, रोष-तोष समान थे। वे सुवर्ण और मणियों को धूलि - समान समझते थे। सुख-दुख को समानरूप से देखते। नरश्रेष्ठ उनकी वन्दना करते, पर वे मोक्ष पर ध्यान रखते थे।
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'पासणाह चरिउ' में वीर रस का भी सुन्दर परिपाक हुआ है। 11वीं सन्धि पूर्ण वीर रस में है, वहाँ भाषा भी ओजयुक्त बनी है। बालक पार्श्व को जब हयसेन युद्ध में जाने से रोकते हैं तो बालक पार्श्व का पौरुष प्रदीप्त हो उठता है क्या बालक का पौरुष और यश नहीं होता? क्या बाल अग्नि दहन नहीं करती? क्या बालसर्प लोगों को नहीं काटता ? क्या बाल - भानु अन्धकार का नाश नहीं करता ? 'पासणाह चरिउ' में अलंकारों का बाहुल्य है। उपमा तो यत्र-तत्र सर्वत्र है। मालोपमा विशेष है। काव्य-सौन्दर्य में अनूठी उत्प्रेक्षाओं का उपयोग हुआ है। नभतल में जब असुरेन्द्र का विमान रुक जाता है तो उसके विषय में कवि ने 17 संभावनाएँ व्यक्त की हैं मानो वह रथ पिशाच हो जो विद्या से स्थगित हो गया है, मानो वह पुद्गल हो जो जीव के उड़जाने से स्थगित हो गया हो। इसी प्रकार जब मेघजाल गगन में बढ़ने लगता है तो कवि 16 कल्पनाओं का वर्णन करता है। मानो दुश्चरित्र व्यक्तियों का अपयश बढ़ रहा हो, मानो खल व्यक्तियों के हृदय में कालुष्य बढ़ रहा हो, आदि। इनके अतिरिक्त दृष्टान्त, व्यतिरेक, संदेह, अर्थान्तर न्यास, तुल्ययोगिता, व्याज स्तुति आदि अलंकार भी मिलते हैं। 'पार्श्व' के कैवल्य की प्राप्ति पर कवि ने संख्यात्मक क्रम से सुन्दर चित्रण किया है - ( 14.30)
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