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________________ अपभ्रंश भारती 21 में अनेक दुःख पाता है। कर्म सिद्धान्त का यह अत्यन्त सरलीकृत रूप है। कवि ने पदे-पदे शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल को व्याख्यायित किया है। 8 सुहु असुहु जीउ अणुहवइ लेवि, णाणाविह पोग्गल सयहं लेवि । अजरामरु जीउ अणाइ कालु, संबहु भमइ बहु कम्म जालु । । 2.16।। जीव अपने कर्मानुसार उनका फल भोगता है। शुभाशुभ फल भोगकर नानाविध पुद्गलों को स्वयं ग्रहणकर यह अजर-अमर जीव अनादिकाल से कर्मजाल में पड़कर बहुत भटक रहा है। - सर्प की मृत्यु व जग की असारता पर पार्श्वकुमार का वैराग्यपरक चिन्तन इसप्रकार व्यक्त किया गया है तिण्ण- लग्गु बिन्दु सम - सरिसु जीउ, अणुहवइ कम्मु जं जेण कीउ । गजकण्ण चवल सम-सरिस लच्छि, जहि जहि जि जाइ तहि तहि अलच्छि ।।12।। यह जीवन तृण पर स्थित जलबिन्दु के समान है। जो कर्म जिसने किया है, वह उसे भोगता है। यह लक्ष्मी गज के कर्णों के समान चंचल है। यह जहाँ-जहाँ जाती है, वहाँ-वहाँ अशुभ करती है। जहाँ शरीर में व्याधियों का वृक्ष वर्तमान है वहाँ जीवित रहते हुए पुरुष को कौन-सा सुख हो सकता है! यही सर्प पूर्वाह्न में जीवित दिखाई दिया था, पर अपराह्न में इसके जीवन की समाधि हो गई! जबतक मेरी मृत्यु नहीं होती और जबतक इस देह का विघटन नहीं होता तबतक मैं कलिकाल के क्रोधादि दोषों का त्याग कर महान तप करूँगा। - 18वीं संधि में चारों गतियों का वर्णन एवं कर्मों का फल प्रभावी बना है। जो मनुष्य मायावी है, शील व्रतों से रहित है, अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को ठगते हैं तथा हितकर आचरण नहीं करते हैं वे पशुओं की योनि में उत्पन्न होते हैं। जो लोभ, मोह और धन में फँसे हैं और ऋषियों, गुरुओं और देवों की निन्दा करनेवाले हैं, वे नर, स्थावर और जंगम जीवों में तथा तिर्यंचों में जाते हैं। जो सुपात्रों को दान देते हैं, जिनका सरल स्वभाव है, निष्कपटी हैं, परधन की इच्छा नहीं करते हैं, इन्द्रियों का दमन करते हैं, जिनकी कषायें हल्की होती हैं, वे भोगभूमि या मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं।
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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