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अपभ्रंश भारती 21
सहित मनोहर काव्य भी मिथ्यात्व और असुखकर होते हैं। श्री जिनसेन, जिनके निमित्त इस कथा को रचा। पूर्व स्नेह के
चित्त में जिनवर विराजते थे, उन्हीं के कारण पद्मकीर्ति इनका शिष्य हुआ -
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घत्ता - सिरि गुरुदेव पसाए, कहिउ असेसु वि चरिउ मइ । 'पउमकित्ति' मुणिपुंगवहो, देउ जिणेसरु विमलमइ ।।
विवेच्य 'पासणाह चरिउ' में महाकाव्य के प्रायः सभी लक्षण विद्यमान हैं। ग्रन्थ का प्रारंभ 24 तीर्थंकरों को नमस्कार एवं उनकी स्तुति से होता है
चवीस वि जिणवर सामिय सिवपुर गामिय पणविवि अणुदिण भावे । पुणु कह भुवण पयासहो पयडमि पासहो जणहो मज्झि सब्भावे ।। शिवपुर को प्राप्त करनेवाले चौबीस जिणवर स्वामियों को प्रतिदिन भावपूर्वक प्रणाम करके भुवन को प्रकाशित करनेवाले पार्श्वनाथ भगवान की कथा को जन - समुदाय के मध्य सद्भावपूर्वक प्रकट करता हूँ।
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चवीस वि णरसुर वंदिय, जगि अहिणंदिय भवियहं मंगल हों तु । भवि भवि बोहि जिणेसर जगपरमेसर अविचलु अम्हई दिंतु ॥ |
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• चौबीस तीर्थंकर मनुष्य और देवों द्वारा वंदित हैं, और जग में अभिनन्दित
हैं। वे जगत के परमेश्वर जिनेश्वर देव भव्यजनों के मंगलरूप हैं। वे भव-भव में
हमें निश्चल बोधि प्रदान करें।
कवि की विनयोक्ति है कि तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यह कथा जग के लिए आकर्षक, त्रिभुवन में श्रेष्ठ नर- सुरों से पूजित, गुणों की निधि है। इसका दुर्लभ यश यावत महीतल - सागरपर्यन्त त्रिभुवन में प्रसारित होता रहे।
काव्य-रचना की प्रेरणा में कवि का कथन है कि जिन-भक्ति ही काव्यशक्ति है। कुशल कवियों द्वारा इस लोक में अनेक लक्षणों से युक्त काव्य रचे गये हैं। तो क्या उससे शंकित होकर अन्य साधारण कवियों को अपने भाव काव्य द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिये?
काव्य कथानक पद्मकीर्ति ने 'पासणाह चरिउ' में 7वीं सन्धि तक पार्श्व के पूर्व जन्मों का वर्णन किया है, वह आचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण में भी यत्किंचित मिलता है।
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