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अपभ्रंश भारती 21
2.6
रवि - चंदु करहि तहिं पसरु णाहिं कप्पदुमेहि णर विद्धि जाहिं
सूर्य-चन्द्रमा करते हैं वहाँ प्रसार, फैलना नहीं कल्पवृक्षों द्वारा मनुष्य समृद्धि प्राप्त होते हैं
2.7
इह
यह
भोगभूमि शांत
समरूप
थी
भोयभूमिसमसरिसु आसि अणुहवहिं जीव वहु सुहहरासि
2.8
तहो
कोडाकोडि चयारिमाणु सायरहं कहिउ
अनुभव करते हैं जीव बहुत सुख की राशि तब कोडोकोडी चार-परिमाण (माप) संख्या सागर की कही गई पादपूरक काल का प्रमाण (आकार) आभूषण विभूषित, सजा हुआ देह के द्वारा
2.9 घत्ता
यलहं यालहं पमाणु आहरण विहूसिय देहहिं