SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती 21 उरि . होवे णिरहु भवे-भवे भव-भव में मन उवसम इन्द्रिय-निग्रह, संयम सिरि छोड़कर थक्कउ स्थिर होवे 1.12 ण न, नहीं रमउं अनुरक्त होऊँ, आसक्त होऊँ णारि-रूवे नारी के रूप-सौन्दर्य में हियउल्लउ मन, अन्तःकरण भवि-भवि भव-भव में होउ पापरहित, निष्कलुष (निरघ-निअघ) णीसल्लउ निशल्य, शल्यरहित 1.13 ईसारिय दूर किया हुआ दह-पंच दस और पाँच, कुल पन्द्रह पमाएँ प्रमाद से भवे-भवि भव-भव में, जन्म-जन्म में दियहं दिन जावें, व्यतीत होवें सज्झाएं स्वाध्याय में दसण दर्शन णाण ज्ञान चरित्त चारित्र पयामें प्रयास के द्वारा भवे-भवे भव-भव में, जन्म-जन्म में मरणु मृत्यु होवे सण्णासें संन्यास के द्वारा, संन्यास में 1.15 मित्तहं मित्रों के लिए (प्रति) रिउहं शत्रुओं के लिए (प्रति) विसम-चित्तहिं विषम-कठोर चित्तवालों के लिए (प्रति) 1. शल्य = मन को पीड़ा देनेवाला भाव। जंतु होउ
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy