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अपभ्रंश भारती 21
शब्दार्थ
1.1
अर्थ
जहाँ, जिसमें होऊँगा भव-भव में
वहाँ
शब्द जहिं होहम्मि भवे-भवे तहि देहम्मि णवे-णवे दुक्ख लक्ख णिणासणे होउ भंति जिणसासणे अवरु णिरंतर उज्झिय गव्हें
देह में नये-नये/नई-नई दुःख (के) लक्ष्य विनाश में/विनाश के लिए
होवे
1.2
भक्ति/श्रद्धा जिनशासन में
अन्य, दूसरे निरंतर, व्यवधान-रहित परित्यक्त, विमुक्त मान से, अहंकार से
इय
मग्गेवउ मणुएं
भब्वें
1.3
चित्तु
माँगा जाना चाहिये मनुष्य भव में चित्त, मन वंचक, धोखा देनेवाले सिद्धान्त विमुख, उदासीन भव-भव में
धुत्त सिद्धत परम्मुहुं भवि-भवि होउ जिणागमे सम्मुहुं पंचिदिय
होवे
जैन-शास्त्रों में सम्मुख, अभिमुख पाँचों इन्द्रियों (स्पर्शन-त्वचा, रसना-जीभ, घ्राण-नाक, चक्षु-आँख व श्रोत-कान)
1.4