SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 46 अपभ्रंश भारती 19 बम्हणेइ म जानन्तहि भेउ। एवइ पढ़ि अउ ए च्चउ बेउ । मट्टि पाणि कुस पढन्तं । घरहि बइसि अगि हुणन्तं । कज्जे बिरहिअ हुतवह होमे। अक्खि उहाविअ कहुए धूमें॥1-2॥ गोरख भी मानते हैं कि विभिन्न मतों वाले पण्डित अपने मत का मण्डन और दूसरे मत के खण्डन में लगे रहते हैं, किन्तु योगी को इस प्रकार के शास्त्रार्थ में नहीं पड़ना चाहिए। सिद्ध और नाथ - दोनों गुरु-वचन को ही एकमात्र शरण मानते हैं - कोई वादी कोई विवादी, जोगी को वाद न करना (गोरखबानी, पृष्ठ 5) वर्णाश्रमवादियों का स्पृश्य-अस्पृश्य-विवेक सिद्धों को बहुत सालता है। वे इस बात को रेखांकित करते हैं। सिद्ध कणहपा कहते हैं - नगर बाहिर डोंबि तोहोरि कुड़िया। छइ छोइ यादुसि बाहम नाडिया। आलो डोंबि तोए सम करिब म साङ्ग। निधिण कान्ह कापालि जोइ लाङ्ग । उन दिनों उच्च वर्णवाले न केवल अन्त्यजों का स्पर्श मात्र नहीं करते थे, अपितु इसके कारण उन्हें नगर के बाहर बसाया जाता था, प्राय दक्षिण दिशा की ओर। वे कहते हैं - ‘अरी डोमिन, तेरा घर तो नगर के बाहर है, किन्तु तुम ब्राह्मणों और ब्रह्मचारियों को छू-छू दिया करती हो। तेरा साथ मुझे करना है क्योंकि मैं भी स्वयं कपाली हूँ - नंगा जोगी हूँ तथा इसी कारण मैं घृणास्पद भी समझा जाता हूँ।' इन सिद्धों ने ब्राह्मणों, पोंगे पण्डितों, पाखण्डियों, दुराचारी, कापालिकों के साथ-साथ भ्रष्ट बौद्धों की भी भर्त्सना की है। विनयश्री ने अपने एक पद में कहा है कि समरस दशा में ब्राह्मण और चाण्डाल में कोई भेद नहीं है। इससे स्पष्ट है कि अन्तःकरण का शोधन जिन मूल्यों के जीने से होता है उनसे विमुख जो भी रहता था अध्यात्म में सिद्धजन उनकी निन्दा खुलकर करते थे। नाथपंथी बानियों में तो मूल्यों की चर्चा सर्वत्र सुनाई पड़ती है। गोरख ने जो अपने स्वप्न की नगरी बसाई है - उसमें सत्य बादशाह की बीवी है, सन्तोष शाहजादा और क्षमा तथा भक्ति - दो दाई हैं। 'गोरखबानी' (पृष्ठ 121) में कहा गया है - तहाँ सत्य बीवी, सन्तोष साहिजादा, छिमा भगति द्वै दाई।27। सिद्धों ने भी कहा है कि संसार के कीचड़ में चित्त को कमल की तरह रहना चाहिए। मोह-रूपी वर्धिष्णु वृक्ष को काटने, आवारा मूषिक रूप चंचत चित्त-स्वभाव को नाश करने, विषय-रूपी विषदंश से बचकर रहने तथा विशुद्धानन्द की प्राप्ति के लिए सुदूर लंका न जाने की शर्तिया सलाह भी दी गई है -
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy