SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती 19 उजु रे उजु मालेहु रे बांक । नियडि वोहि मा जाहु रे लांक । हाथेर काङ्कण मा लेउ दापण । अधणै अपा बुझतु णिञ मण ॥ ( सरहपाद, चर्या 32 ) एक तरफ नाथगण घरबारी न होने की बात करते हैं, दूसरी तरफ बौद्धसिद्ध गुण्डरीपाद बानी सु - 47 जो इनि त बिनु खनहिं न जीवमि । तो मुह चुम्बी कमल रस पीवमि ॥ (चर्या 4 ) ऐसी रचनाओं में कुछ अन्यथा प्रतीति होती है परन्तु तथ्य यह है कि चर्याकारों ने नरनारी मिलन रस के प्रतीकों द्वारा पारमार्थिक आनन्दलोक की सृष्टि की है । चर्या पदों में स्थानस्थान पर यह नारी महामुद्रा या योगिनी रूप में प्रकट हुई है। गुण्डरीपाद उक्त रचना के माध्यम से कह रहे हैं -‘हे नैरात्म्य योगिनी ! तुम्हारे बिना मैं क्षणमात्र के लिए भी जीवित नहीं रहूँगा । सहजानन्द स्वरूप तुम्हारे मुख का चुम्बन कर मैं बोधिचित्तरूप कमल - रस का पान करूँगा ।' समाज को धर्म-भावना या मूल्य-भावना ही धारण करती है। आत्मवादी दृष्टि से मूल्य (Values of Life) ही संस्कृति है, जिसके व्यावहारिक और पारमार्थिक - दो पक्ष हैं। आत्मदर्शन पारमार्थिक पक्ष है और करुणा आदि पदार्थ-वृत्तियाँ व्यावहारिक । सिद्धों ने इन दोनों की अभिव्यक्ति की है। सम्प्रति, वैज्ञानिक दृष्टि से 'Culture' के अनूदित रूप 'संस्कृति' में वह सबकुछ आता है जिन्हें समाज के सदस्य के रूप में मानव ने अर्जित किया है - ज्ञान, विश्वास, रस्म-रिवाज, जीविका के साधन, मनोरंजन के प्रकार आदि । ये द्रष्टव्य हैं - (i) स्पृश्य-अस्पृश्य का विवेक या विचार भी अर्जित तत्त्व ही है, वर्णाश्रमवादी समाज की यह एक रूढ़ि बनकर दूषित स्तर तक पहुँचा दी गई, इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। (ii) सामाजिक प्रथाएँ या रीतिरिवाज । समाज की स्वीकृति से ही प्रथाएँ, रस्म और रिवाज स्थापित होते हैं, पर समय के लम्बे दौर में विवेक - प्रसूत-स्थिति शिथिल या निःशेष हो जाती है तब वह प्रथा अर्थहीन रूढ़ि बन जाती है। अब दहेज की ही प्रथा, जो आज परेशानी की जड़ बन गयी है, उसका उल्लेख निम्नलिखित पंक्तियों में है - भव निर्वाणे पडह मादला । मन पवन करउं कसाला । जअ जअ दुंदुहि साद उछलिया। कान्ह डोंबि विवाहे चलिया ॥ डोंबी विवाहिया अहारिउ नाग। जउत के किअ आणु सतु धाम ॥ - - ( कण्हपा, चर्या 19)
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy