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अपभ्रंश भारती 19
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उसका उपयोग अपनी उपलब्धियों की अभिव्यक्ति को बोधगम्य बनाने के लिए अप्रस्तुत के रूप में प्रायः लाया जाता है।
समाज के सदस्य के रूप में मानव ने जो कुछ अर्जित किया है - मूल्य, ज्ञान, विश्वास, यातु रस्मरिवाज, मनोरंजन के साधन आदि - प्रायः सभी से घटित इकाई को संस्कृति कहा जाता है। इसमें मानवीय और सामाजिक मूल्य और मान्यताओं का भी समावेश है - इसलिए संस्कृति को जीवन-मूल्य (Values of Life) भी कहते हैं। सामान्यतः हम उन्हें धर्म के नाम से भी पुकारते हैं और सभ्यता यानी जीवन-यापन के साधनों से पृथक् कर लेते हैं। धर्म या मूल्य के रूप में कुछ मूल्य हैं जो समाज को स्वस्थ बनाए रखने के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य हैं पर धर्म के कुछ रूप प्रातिस्विक रूप से आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए हैं।* इस संदर्भ में हमारी सीमा उन्हीं घटकों तक है जिन्हें सामाजिक व्यवस्था की सुरक्षा और समुन्नति के लिए उपयोगी माना जाता है। वैसे तो यह भी कहा गया है -
"अयमेव परो धर्मः यद्योगेनात्मदर्शनम्' बौद्धसिद्ध या नाथ योगी का मुख्य लक्ष्य यही है। पर इसकी सिद्धि के लिए वे एकान्त . चाहते हैं और समाज से कट जाते हैं। गोरखनाथ (गोरखबानी, पृष्ठ 17) कहते हैं -
गिरही सो जो गिरहै काया ।
अभि अन्तर की त्यागै माया॥ योगी गृही या घरबारी नहीं। यदि समाज की कतिपय मान्यताएँ उन्हें बाधा प्रतीत होती हैं तो वे उसकी आलोचना भी करते हैं। उनकी दृष्टि में क्रमागत चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ऐसी ही है, इसलिए अस्वीकार्य लगती है। वहाँ अर्जित की जगह जन्मजात उच्चावच भाव का निर्धारण होता है। यहाँ दोनों एकमत होकर मानते हैं कि महत्ता उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से नहीं, अपितु सात्त्विक पुरुषार्थ से अर्जित की जाती है और उसे मानवमात्र कर सकता है। प्रकृति ने किसी के साथ पक्षपात नहीं किया है। बौद्धसिद्ध कहता है कि ब्राह्मण या पण्डित शास्त्र रटकर वाचाल बनता है तो उससे क्या हुआ, यदि वह आत्मदर्शी नहीं हुआ - आत्मदीप नहीं हुआ -
पण्डिअ सकल सत्त बक्खाणइ।
देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ ॥ सरहपाद ने दोहा कोश के पहले ही दोहे में ब्राह्मणवाद पर प्रहार किया है। चर्यापदों की अपेक्षा दोहाकोश में यह स्वर और तीखा सुनाई पड़ता है। सरहपाद (दोहाकोश में) कहते हैं -
*समाज को धारण करनेवाले धर्म या संस्कृति की आत्मवादी और वैज्ञानिकों द्वारा दो दृष्टियों से व्याख्या की गई है। आत्मवादी दृष्टि से उसे जीवन-मूल्य (पारमार्थिक और व्यावहारिक) कहते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि से वह सबकुछ जो समाज के सदस्य के रूप में वह अर्जित करता है।